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धात्वर्थ-निर्णय
१७७ ही 'धावति' पद 'पश्य' का 'कर्म' क्यों न हो)। परन्तु (द्वितीया विभक्ति के न होने पर भी) 'कर्मत्व' की प्रतीति ('पश्य' इस पद में विद्यमान) 'आकांक्षा' के कारण होती है। इसी प्रकार 'पचति भवति' (पचन क्रिया होती है) यहाँ "पचन-क्रिया है 'कर्ता' जिसमें ऐसी सत्ता" यह ज्ञान होता है क्योंकि “पच्' आदि (धातुएँ) 'भवति' (होने) क्रिया की 'की' होती हैं" ऐसा "भूवादयो धातवः" (पा० १.३.१) सूत्र के भाष्य में कहा गया है। और भर्तृहरि ने भी कहा है:--
"जिस प्रकार अनेक सुबन्त अनेक तिङ्न्त के विशेषण होते हैं उसी प्रकार (विद्वानों ने) तिङन्त (क्रिया पद) को भी तिङन्त (क्रिया पद) का विशेषण माना है।
___ इस प्रसङ्ग में नैयायिकों की तीसरी मान्यता यह है कि वाक्य के शाब्द-बोध में प्रथमाविभक्त्यन्त शब्द के अर्थ की प्रधानता होती है तथा 'तिङ्' का अर्थ उस प्रथमाविभक्त्यन्त-शब्द के अर्थ ('कर्ता') के प्रति विशेषण' होता है। इस मत का प्रदर्शन ऊपर किया जा चुका है।
परन्तु वैयाकरण इससे भिन्न प्रक्रिया मानता है। उसके अनुसार वाक्य में धात्वर्थ ----व्यापार' अथवा 'फल'- की प्रधानता होती है। नैयायिक की उपयुक्त मान्यता में दोष दिखाने की दृष्टि से यहाँ उदाहरण के रूप में एक वाक्य 'पश्य मृगो धावति' प्रस्तुत किया गया है तथा, वैयाकरणों के सिद्धान्त के अनुसार उसका अन्वय दिखाते हुए, वैयाकरण-सिद्धान्त की निर्दोषता प्रतिपादित की गयी है।
शाब्दिक मते ... संसर्ग-मर्यादया भासते - वैयाकरण मत के अनुसार इस वाक्य का प्रधान अर्थ है 'देखना' रूप क्रिया अथवा 'व्यापार'। उस प्रधानभूत 'देखने' क्रिया का 'कर्म' है 'मृग का दौड़ना' तथा इस 'देखने' क्रिया का 'कर्ता' है 'त्वम्' (तुम), जिसको वक्ता देखने के लिये प्रेरित कर रहा है। इस रूप में -- "मृग का दौड़ना है 'कर्म' जिसमें तथा प्रेरणा का विषय बना हुअा 'त्वम्' (तुम) है 'कर्ता' जिसका ऐसा 'दर्शन' (देखना)" यह शाब्दबोध इस वाक्य से होता है। यहां यद्यपि 'मृगो धावति' यह अंश 'पश्य' का कर्म है इसलिये उससे द्वितीया-विभक्ति आनी चाहिये । परन्तु 'मृगो धावति' इस 'कर्म' अंश में भी, 'व्यापार' के प्रधान होने के कारण, जो 'विशेष्य' (प्रधान) 'धावति' पद है उससे तो द्वितीया विभक्ति इसलिये नहीं पाती कि वह 'प्रातिपदिक' नहीं है तथा 'मृगः' जो 'प्रातिपदिक' है उससे द्वितीया विभक्ति इसलिये नहीं आती कि वह अप्रधान है ।
इस प्रकार प्रधानभूत 'पश्य' क्रिया के 'कर्म' कारक 'मगो धावति' अंश से द्वितीया विभक्ति तो नहीं आती पर, द्वितीया विभक्ति के न हो होने पर भी, 'पश्य' पद के सुनने से जो 'आकांक्षा' उत्पन्न होती है उसके कारण 'मृगो धावति' की कर्मता का ज्ञान हो जाता है। इस 'आकांक्षा' को पारिभाषिक शब्दों में यहाँ 'संसर्ग-मर्यादा' कहा गया है। इस 'संसर्ग मर्यादा' को एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ के सम्बन्ध का कारण माना जाता है । द्र०-"एकपदार्थे अपरपदार्थस्य संसर्गः संसर्गमर्यादया भासते" (व्युत्पत्तिवाद पृ० १)।
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