________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
१७४
वैयाकरण- सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
जो कि ( यह कहा जाता है कि यास्क के कथन में ) - ' प्रख्यात ' पद से केवल 'ति' का ग्रहण होने तथा 'भावप्रधानम्' में (बहुब्रीहि न मान कर ) षष्ठी तत्पुरुष (समास) का प्राश्रयण करने से प्रत्ययार्थ की प्रधानता ही ज्ञात होती हैवह उचित नहीं है क्योंकि " प्राख्यातम् प्राख्यातेन क्रियासातत्ये" इस ( मयूर - व्यंसकादिगण में पठित) गरणसूत्र में 'प्राख्यात' पद से तिङन्त का ग्रहण किया जाता है । इसके अतिरिक्त सामान्य नियम से ही कार्य चल जाने पर यास्क कथित विशेष वचन भी व्यर्थ हो जाता है । इस कारण 'भावप्रधानम्' में बहुब्रीहि समास ही मानना चाहिये तथा 'आख्यात' पद से 'तिङन्त' ( पदों) का ही ग्रहण करना चाहिये - यह (विचार) पर्याप्त है ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नैयायिकों की पहली बात - " ' तिङ्' का अर्थ केवल कृति है" - का खण्डन कर चुकने के पश्चात् उनकी दूसरी बात - " " तिङ्' का अर्थ 'विशेष्य' (प्रधान) तथा धातु का अर्थ 'तिङ्' के अर्थ का. 'विशेषण' (प्रधान) होता है" का खण्डन करते हैं ।
"
तथाहि पशुविशेष इति बोधः - इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि प्रकृत्यर्थ और प्रत्ययार्थ दोनों एक साथ उपस्थित होते हैं तथा दोनों अर्थों में प्रत्ययार्थ की प्रधानता होती है । इस विषय में निम्न परिभाषा द्रष्टव्य है - - " प्रकृतिप्रत्ययौ सहार्थं ब्रूतस्तयोः प्रत्ययार्थस्य प्राधान्यम्" । यहाँ प्रत्ययार्थ की प्रधानता का तात्पर्य है प्रत्यय के वाच्य अर्थ की प्रधानता । प्रत्यय का द्योत्य अर्थ तो प्रप्रधान ही माना जाता है । इसीलिये 'प्रजा' कहने पर, 'टाप्' प्रत्यय द्योत्य अर्थ 'स्त्रीत्व' की प्रधानता न होने से, स्त्रीत्व से विशिष्ट पशुविशेष अर्थ का ही प्रधान रूप से ज्ञान होता है ।
तस्य उत्सर्गस्य इति बोध्यम्- - परन्तु प्रत्ययार्थ की प्रधानता का नियम एक सामान्य नियम है । इस नियम का बाधक, अथवा अपवाद या विशेष नियम, यास्क का यह स्पष्ट कथन है कि " प्रख्यात भाव प्रधान होता है तथा नाम द्रव्यप्रधान" ( भावप्रधानम् श्राख्यातं सत्त्वप्रधानानि नामानि ) । यहाँ 'भाव' का अर्थ है 'व्यापार' तथा 'फल', जिन्हें वैयाकरण धात्वर्थ मानता है । 'भावप्रधानम्' – पद में बहुब्रीहि समास है । इसलिये इस पद का अर्थ है - "जिसमें 'भाव' अर्थात् 'व्यापार' या 'फल' की प्रधानता- - ( विशेष्यता) हो" । यहाँ के 'आख्यात' पद का अभिप्राय है तिङन्त पद, न कि नैयायिकों के समान केवल 'तिङ्' विभक्ति । इस कथन के उदाहरण के रूप में 'पचति' तथा 'पच्यते' प्रयोग द्रष्टव्य हैं। 'पचति' में पाक 'व्यापार' की प्रधानता का बोध होता है तो 'पच्यते' में विक्लित्ति आदि 'फल' की प्रधानता का । 'सत्त्व' अर्थात् द्रव्य की प्रधानता ' प्रातिपदिक' या नाम पदों में होती है । यास्क के इस कथन का पतंजलि ने महाभाष्य के अनेक स्थलों में हृदयग्राही युक्तियों द्वारा प्रतिपादन तथा प्रतिष्ठापन किया है । उदाहरण के लिये निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य है :- "सिद्धं तु क्रियाप्रधानत्वात् । क्रियाप्रधानम् आख्यातं भवति । एका च क्रिया । द्रव्यप्रधानं नाम । कथं पुनर्ज्ञायते क्रियाप्रधानम् प्रख्यातं द्रव्यप्रधानं नाम इति ? यत् क्रियाम् पृष्टः तिङा प्रचाष्टे - 'कि देवदत्तः करोति ? ' ' पचति' इति । द्रव्यं पृष्टः कृता प्राचष्टे - ' कतरो देवदत्त ? 'य: कारको यो हारक इति" ( महा० ५.३.६६ ) । " भूवादयो धातवः " ( पा० १.३.१ ) सूत्र के भाष्य में भी इस आशय के पोषक अनेक वाक्य मिलते हैं ।
For Private and Personal Use Only