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धात्वर्थ-निर्णय
१५७
इति हेलाराजः-यहां हेलाराज का नाम लेने की कोई आवश्यकता नहीं दिखाई देती क्योंकि यह व्याख्या नागेश की अपनी है। हेलाराज की व्याख्या से यहां थोड़ा सा भी अंश उद्धत नहीं किया गया है । प्रारम्भ के दो एक वाक्य थोड़े बहुत अवश्य मिलते हैं पर कोई अन्य समानता नहीं है। हां व्याख्या का अभिप्राय, कारिका की दृष्टि से, समान ही है । अतः सम्भवतः अभिप्राय की दृष्टि से ही यहां नागेश ने हेलाराज का नाम लिया है।
['इष्' धातु का अर्थ]
इच्छतेरिच्छानुकूलं' ज्ञानम् अर्थः । अतीतानागतयोरपि
बुद्ध्युपारोहात् फलशालित्वम् । 'इष्' (धातु) का इच्छा (रूप 'फल') के अनुकूल होने वाला ज्ञान (-रूप 'व्यापार') अर्थ है । भूत तथा भविष्यत् काल की वस्तुएं भी, (तात्कालिक) बुद्धि का विषय बनने के कारण, (इच्छा रूप) 'फल' का आश्रय हो जाती हैं।
यहां प्रसंगतः 'इष्' धातु के अर्थ के विषय में विचार किया गया है । 'इष्' धातु का 'फल' 'इच्छा' है तथा इच्छानुकूल जो ज्ञान वही 'व्यापार' है । यहां यह पूछा जा सकता है कि 'इच्छा' रूप 'फल' का पाश्रय तो वे ही वस्तुएं हो सकती हैं जो इच्छा करने वाले की इच्छा के समय में विद्यमान हों। भूत तथा भविष्यत् काल की वस्तुएं इच्छा का विषय कैसे बन सकती हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यहाँ यह दिया गया कि बुद्धि में उन वस्तुओं के उपस्थित होने के कारण प्रतीत तथा अनागत की वस्तुएं भी इच्छा का विषय बन जाती हैं।
['पत्' धातु की 'सकर्मकता' तथा 'अकर्मकता' के विषय में विचार]
पतिः गमिवत् सकर्मकः, 'नरकं पतितः' इत्यादि-प्रयोगात् ।
विभाग-जन्य-संयोगमात्र-परत्वे 'अकर्मकः' इति । 'पत्' धातु, 'गम्' धातु के समान, 'सकर्मक' है क्योंकि 'नरकं पतितः' (नरक में गिरा) इत्यादि प्रयोग देखे जाते हैं । 'विभाग से उत्पन्न संयोग' इतना ही अर्थ मानने पर ('पत्' धातु) 'अकर्मक' है।
'पत्' धातु के अर्थ के विषय में दो मत हैं। पहला यह है कि विभाग से उत्पन्न संयोग रूप 'फल' के अनुकूल 'व्यापार' 'पत्' धातु का अर्थ है । इस मत में 'पत्' धातु को 'सकर्मक' माना जाता है क्योंकि संयोगरूप 'फल' के आश्रयभूत 'नरक' आदि की
१. ह.- इच्छानुकूलज्ञानम् । २. ह०-इति बोध्यम् ।
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