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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
भावों को 'घञ्' श्रादि प्रत्यय कहते हैं या है जबकि 'साध्य' भाव, अर्थात् क्रिया को
तत्र सिद्धत्वम् धातुप्रतिपाद्यम् - शब्द की स्वाभाविक शक्ति के अनुसार 'सिद्ध' 'घञ्' आदि प्रत्ययों का वाच्यार्थ 'सिद्ध' भाव केवल धातु ही सर्वत्र कहती है, अर्थात् तिङन्त पदों के द्वारा ही 'साध्य' भाव (क्रिया) को कहा जा सकता है । द्र०—
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" साध्यत्वेन क्रिया तत्र धातुरूपनिबन्धना । सत्त्वभावस्तु यस्तस्याः स घञादिनिबन्धनः ॥
[ 'साध्यता' की वास्तविक परिभाषा ]
'घञ्' आदि 'कृत्' प्रत्यय 'सिद्ध' भाव (द्रव्य भाव ) को कहते हैं। इसको बताने वाली वैयाकरणों की एक और परिभाषा है - "कृदभिहितो भावो द्रव्यवद् भवति " ( महा० २. २.१६), अर्थात् 'कृत्' प्रत्ययों के द्वारा कहा गया 'भाव' द्रव्यवत् होता है ।
( वाप० ३.८.४८ )
वस्तुतः 'साध्यत्वम्' निष्पाद्यत्वम् एव । तद्रुपेणैव बोधः । स्पष्टं चेदम् " उपपदम् अतिङ् " ( २.२.१६ ) इत्यादी भाष्ये ।
ननु 'घटं करोति' इत्यादी द्रव्यस्यापि साध्यत्वेन प्रतीतिरिति चेन्न । 'करोति' - पद समभिव्याहारात् । तथा प्रत्ययेऽपि स्वतो घटादिपदाद् द्रव्यस्य सिद्धत्वेनैव प्रतीतेः ।
वस्तुतः निष्पाद्यता ही 'साध्यता' है-उसी रूप में क्रिया का ज्ञान होता है, और यह "उपपदम् प्रतिङ्" इत्यादि सूत्रों के भाष्य में स्पष्ट है ।
'घटं करोति' (घड़ा बनाता है) इत्यादि (प्रयोगों) में द्रव्य (घट) की भी 'साध्यता' रूप से प्रतीति होती है - यह नहीं कहा जा सकता। क्योंकि 'करोति' पद की समीपता के कारण उत्पाद्यतारूप से ज्ञान होने पर भी स्वयं 'घट' आदि शब्दों से द्रव्य (घट) को 'सिद्धत्व' रूप से प्रतीति होती है ।
'सिद्धत्व' तथा 'साध्यत्व' की, कौण्डभट्ट आदि को अभिमत, परिभाषा देने के उपरान्त नागेशभट्ट 'साध्यत्व' की अपनी परिभाषा देते हैं। नागेशभट्ट के विचार में 'साध्यता' का सीधा अर्थ 'निष्पाद्यता' है और 'सिद्धत्व' का अर्थ है 'निष्पन्नता' |
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stos की परिभाषा इसलिये स्वीकार्य नहीं है कि उसमें यह आवश्यक माना गया है कि 'साध्य' में दूसरी क्रिया की प्राकांक्षा को उत्पन्न करने की क्षमता न हो । परन्तु महाभाष्य में पतञ्जलि ने 'पचति भवति' जैसे प्रयोग किये हैं जिसमें 'भवति' को 'पचति' क्रिया की आकांक्षा का उत्थापक स्वीकार किया गया है । द्र० - ' पचति क्रियाः भवति क्रियायाः कर्थ्यो भवन्ति" (महा ०१.३.१, पृ० १६७ ) । इसलिये 'साध्यत्व' की