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भ्रात्वर्ष निर्णय
१४३
अवान्तर 'क्रियाओं' को एक मानता है। अवयवभूत इन अवान्तर 'व्यापारों का, अभिन्न दृष्टि से एकत्व को प्राप्त, समूह ही 'क्रिया' कही जाती है। इस बुद्धि-कल्पित समूह को प्रधान 'व्यापार' माना जाता है तथा इसके प्रति सारे अवान्तर 'व्यापार' गुण या गौण अर्थात् प्रप्रधान होते हैं । 'क्रिया' के इसी स्वरूप को बृहद्देवताकार ने निम्न श्लोक स्पष्ट किया है
क्रियासु बहवोष्वभिसंश्रितो यः पूर्वापरीभूत इर्वक एव ।
क्रियाभिनिवृत्तिवशेन सिद्ध श्राख्यातशब्देन तमर्थम् श्राहुः ।। (बृहदेवता १.४४)
" सूवादि" ० सूत्रस्थ - भाष्यार्थ प्रतिपादक हरिप्रस्थात्- महाभाष्यकार पतञ्जलि ने "भूवादयो धातवः " (१.३.१) सूत्र के भाष्य में रोचक विवादों द्वारा 'क्रिया' के स्वरूप पर पर्याप्त प्रकाश डाला । यहाँ के पतञ्जलि के कथन से स्पष्ट है कि 'क्रिया' का स्वरूप अमूर्त है, अदृश्य है । इसलिये उसे गर्भस्थ शिशु के समान मूर्तरूप में प्रत्यक्ष नहीं दिखाया जा सकता । 'क्रिया' का स्वरूप केवल श्रनुमानगम्य है । सभी साधनों के उपस्थित रहते हुए भी वक्ता कभी 'पचति' क्रिया' का प्रयोग करता है तथा कभी नहीं करता । अतः जिस साधन के होने पर 'पचति' क्रिया' का प्रयोग होता है उस साधन को ही 'क्रिया' मानना चाहिये, अथवा जिससे देवदत्त यहाँ से पटना पहुँच जाता है कही 'क्रिया' है। द्र० - "क्रिया' नामेयम् प्रत्यन्तापरिदृष्टा, अशक्या क्रिया पिण्डीभूता निदर्शयितुं यथा गर्भोऽनिलुठितः । साऽसो अनुमानगम्या । कोऽसौ अनुमानः । इह सर्वेषु साधनेषु सन्निहितेषु कदाचित् पचतीत्यादि भवति कदाचिन्न भवति । यस्मिन् साधने सन्निहिते पचतीत्येतद् भवति सा नूनं क्रिया । अथवा यया देवदत्त इह भूत्वा पाटलिपुत्रे भवति सा नूनं 'क्रिया" ।
एक कावयवे पचतीतिव्यवहारः - यह पूछा जा सकता है कि जब अनेक श्रावश्यक श्रवयवभूत अवान्तर 'व्यापारों' के समूह को 'क्रिया' कहते हैं तो उन उन 'क्रियाओं' के एक एक अवयवों के लिये 'क्रिया' शब्द का व्यवहार क्यों होता है ? इस भ्रंश में इसी प्रश्न का उत्तर दिया गया है ।
इस अंश का अभिप्राय यह है कि जब एक अवयवभूत 'व्यापार' के लिये पूरी 'क्रिया' का व्यवहार होता है, जैसे 'केवल श्राग जलाना' या 'पात्र को चूल्हे पर रखना' आदि 'व्यापारों' के लिये पचति' क्रिया का प्रयोग किया जाता है, तो वक्ता उस एक श्रवयव वाले व्यापार में, 'पाचन' क्रिया में समविष्ट होने वाले, सभी अवान्तर 'व्यापारों' के समूह का बौद्धिक आरोप कर लेता है । इस लिये एक एक प्रवान्तर 'क्रिया' या 'व्यापार' के लिये पूरी 'क्रिया' का व्यवहार होता है ।
['सिद्ध' और 'साध्य' की कोण्डभट्ट सम्मत परिभाषा ]
अत्र केचित् - 'सिद्धत्वम्'
क्रियान्तराकांक्षोत्थापकतावच्छेदकवै जात्यवत्त्वे सति कारकत्वेन क्रियान्वयित्वे सति
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