________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१००
www.kobatirth.org
वैयाकरण- सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
[स्फोट एक एवं प्रखण्ड है ]
२.
३.
४.
स च यद्यप्येकोऽखण्डश्च । तथापि पदं वाक्यम्' । जपाकुसुमादि - लौहित्य-पीतत्वादि-व्यंजको पराग-वशाल' लोहितः, पीतः, स्फटिक इति भानवद् वर्णादि-व्यंग्यः वर्णरूपः पदरूपो वाक्यरूपश्च । यथा च मुखे मणिकृपारण-दर्पण - व्यंजकोपाधि-वशाद् दैर्ध्य - वर्तुलत्वादिभानं तद्वत् । तद् उक्तम्
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पदे न वर्णा विद्यन्ते' वर्णेष्ववयवा न च' । वाक्यात् पदानाम् प्रप्यन्तं प्रविवेको न कश्चन । ( वा प० १. ७३ )
और वह (स्फोट ) यद्यपि एक तथा प्रखण्ड है फिर भी पद और वाक्य कहा जाता है | लाल तथा पीले आदि (रंगों ) के व्यंजक जपा पुष्प आदि के उपराग (सम्पर्क) के कारण (स्वच्छ वर्ण वाला) स्फटिक लाल तथा पीला है। इस प्रतीति के समान वर्ण आदि ( पद तथा वाक्य) से व्यक्त होने वाला (एक एवं खण्ड 'स्फोट') वर्णरूप, पदरूप तथा वाक्यरूप हो जाता है । और जैसे मरण, तलवार तथा दर्पण (इन) व्यंजक रूप ' उपाधियों' के कारण मुख में भी लम्बाई - गोलाई आदि की प्रतीति होती है उसी प्रकार ('स्फोट' में अभिव्यंजक वर्ण, पद तथा वाक्य के धर्मों की प्रतीति होती है)। इस विषय में भर्तृहरि ने कहा है
"पद में वर्ण तथा वर्णों में (उनके) अवयव नहीं होते । ( इसी प्रकार ) वाक्य से पदों का पार्थक्य नहीं है ।"
यद्यपि वैयाकरणों की दृष्टि में 'स्फोट' एक एवं निरवयव है तथापि वर्ण, पद तथा वाक्य की 'प्राकृत' ध्वनि से वह व्यक्त हुआ करता है, इसलिये उस एक स्फोट के भी 'वस्फोट' प्रादिभेद हो जाते हैं। 'प्राकृत' ध्वनि के द्वारा स्फोट की अभिव्यंग्यता की दृष्टि से ही 'स्फोट' शब्द की व्युत्पत्ति की जाती है- “ स्फुटति वर्णादिभिर् ग्रभिव्यज्यते यः स स्फोट: " ।
इस प्रकार वर्णरूप 'मध्यमा' नाद से अभिव्यक्त होने वाला स्फोट 'वर्णस्फोट', पद रूप मध्यमा' नाद से व्यक्त होने वाला स्फोट 'पदस्फोट' तथा वाक्यरूप मध्यमा
१.
'तथापि पदं वाक्यम्' यह अंश यहां सर्वथा असंगत एवं अनावश्यक प्रतीत होता है क्योंकि यहीं आगे 'स्फोट' के लिये 'वर्णरूपो पदरूपो वाक्यरूपश्च' की बात कही गयी है ।
ह० वश्यात् ।
ह० वाक्येष्व - 1
वाक्यपदीय में 'अवयवा इव' तथा 'अवयवा न वा' पाठभेद मिलते हैं ।
For Private and Personal Use Only