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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्फोट- निरूपण ६५ की विवक्षा (बोलने की इच्छा ) से उत्पन्न प्रयत्न के कारण मूलाधारस्थ पवन के साथ 'परा' का योग ही उसका 'संस्कार' है । 'परा' वाणी के लिये नागेश ने जिस 'बिन्दुरूपिणी' विशेषरण का प्रयोग किया है वह विचारणीय है । यहां 'बिन्दु' का अभिप्राय है ' कारण- बिन्दु' | अपनी लघुमंजूषा ( पृ० १६८-७२ ) में नागेश ने शाब्दी सृष्टि की प्रक्रिया का जो वर्णन प्रस्तुत किया है उसका संक्षिप्त रूप यह है कि प्रलयावस्था में माया परब्रह्म में समाविष्ट रहती है । परन्तु प्राणियों के कर्मो का परिपाक हो जाने पर परब्रह्म से माया पृथक् होती है तथा ब्रह्म की क्रियात्मक प्रेरणा के कारण वह 'कारण बिन्दु' की स्थिति में प्राती है । यह 'कारण बिन्दु' अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व है तथा तीनों गुणों (सत्त्व, रज तथा तम) से समवेत है । यह 'कारण बिन्दु' ही 'कार्यबिन्दु', 'नाद' तथा 'बीज' इन तीन रूपों में परिणत होता है | परन्तु जब 'कारण बिन्दु' इन तीन रूपों में विभक्त होता है तो एक अव्यक्त 'शब्दब्रह्म' या रव की उत्पत्ति होती है, जो मूलाधार में वहां की वायु से सम्बद्ध या सुसंस्कृत होकर 'पर वाक्' नाम ग्रहण करता है । इसी तरह की प्रक्रिया का उल्लेख, नागेश के पूर्ववर्ती एवं त्रिपुरा सम्प्रदाय के अपेक्षाकृत अर्वाचीन आचार्य तथा टीकाकार, श्री भास्कर राय ने भी ललितासहस्रनाम ( श्लो० १३२ ) की टीका में किया है। इन दोनों की प्रक्रिया में अन्तर केवल इतना ही प्रतीत होता है कि नागेश कार्य-बिन्दु', नाद तथा बीज इन तीनों को ही 'कारण- बिन्दु' के तीन रूप मानते जबकि भास्कर राय के अनुसार कारणबिन्दु 'कार्य-बिन्दु' के रूप में तथा 'कार्य-बिन्दु' 'नाद' के रूप में ओर 'नाद' 'बीज' के रूप में परिणत होता है । इस रूप में इन दोनों की दृष्टि में 'परावाक्' परमतत्त्व न होकर ब्रह्म की मायाशक्ति की एक अवस्था - विशेष है जो सादि और सान्त है । स्पष्ट है कि 'परा वाक्' सम्बन्धी, नागेश भट्ट के इस कथन पर भास्कर राय इत्यादि शैवागम के दार्शनिकों का पूरा प्रभाव है । परन्तु भर्तृहरि ने जिस 'परा' या शब्द ब्रह्म को सृष्टि के मूल तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है वह ब्रह्म की अभिन्न शक्ति ही है, या स्पष्ट शब्दों में शक्ति की कोई अवस्था विशेष न होकर, स्वयं साक्षात् ब्रह्म है । पश्यन्ती - 'पश्यन्ती' वाणी के स्वरूप का विवरण भी वाक्यपदीय की स्वपोज्ञ टीका (१.१४३ ) में मिलता है जिसका संक्षेप में यह अभिप्राय है कि 'पश्यन्ती' की स्थिति में वाणी प्रविभक्त रहती है । उसमें क्रमिकता या वर्ण आदि का पौर्वापर्य अनभिव्यक्त रहता है । यदि वक्ता की विवक्षा के समय 'परा' का संस्कार होता है या 'परा' का क्षेत्र वक्ता की बोलने की इच्छा तक है तो इससे अगली स्थिति 'पश्यन्ती' की है । नाभि तक आने वाली वायु द्वारा 'पश्यन्ती' वारणी को अभिव्यक्ति मिलती है तथा इसका ज्ञान केवल मन के द्वारा ही हो पाता है । मन अपनी मनन-शक्ति के साथ इस स्थिति में विशेष सक्रिय रहता है ।। इस स्थित में सभी पदार्थ प्रत्यवभासित होते हैं । यह प्रत्यवभासन या ज्ञान शब्द तथा अर्थ की अभिन्नरूपता में ही होता है । इस रूप में सभी पदार्थों तथा अर्थों की प्रकाशिका होने के कारण इस का नाम 'पश्यन्ती' पड़ा ( ८० - वृषभदेव की टीका, चारुदेव संस्करण पृ० १२७) । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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