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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम लघु-मंजूषा 'पश्यन्ती' 'मध्यमा' 'वैखरी' च । तत्र मूलाधारस्थ-पवनसंस्कारीभूता मूलाधारस्था शब्दब्रह्मरूपा स्पन्दशून्या 'बिन्दुरूपिणी 'परा' वाग् उच्यते । नाभिपर्यन्तम् आगच्छता तेन वायुना अभिव्यक्ता मनोगोचरीभूता ‘पश्यन्ती' वाग् उच्यते । एतद् द्वयं वाग्ब्रह्म योगिनां समाधौ निर्विकल्पकसविकल्पक-ज्ञान-विषय इत्युच्यते । ततो हदयपर्यन्तम् आगच्छता तेन वायुना अभिव्यक्ता तत्तदर्थ-वाचक-शब्दस्फोटरूपा श्रोत्र-ग्रहणायोग्यत्वेन सूक्ष्मा, जपादौ बुद्धिनिर्गाह्या 'मध्यमा' वाग् उच्यते । तत आस्यपर्यन्तम्
आगच्छता तेन वायुना ऊर्ध्वम् आक्रामता च मूर्धानम् पाहत्य परावृत्य च तत्तत्स्थानेष्वभिव्यक्ता परश्रोत्रेणापि ग्राह्या 'वैखरी' वाग् उच्यते । तदाहपरावाङ मूलचक्रस्था पश्यन्ती नाभिसंस्थिता ।
हृदिस्था मध्यमा ज्ञेया वैखरी कण्ठदेशगा । इति तो फिर 'वृत्तियों' का आश्रयभूत शब्द क्या है ? 'स्फोट' रूप शब्द को (वत्तियों का प्राश्रय) समझो। यह 'स्फोट' क्या है ? (इसके उत्तर में) यह कहा जाता है कि ... चार प्रकार की वाणी है । 'परा', 'पश्यन्ती', 'मध्यमा' तथा 'वैखरी' । उनमें मूलाधार (चक्र) में रहने वाली वायु के संस्कार से अभिव्यक्त मूलाधार (चक्र) में (ही) रहने वाली, शब्दब्रह्मरूपा, क्रिया-शून्य तथा कारणबिन्दुरूपा वाणी 'परा' मानी जाती है।
नाभि तक आने वाली उस वायु से अभिव्यज्यमान तथा केवल मन का विषय बनने वाली वाणी ‘पश्यन्ती' मानी गयी है । ये दोनों ही वागबह्म ('परा' तथा 'पश्यन्ती') समाधि की स्थिति में (क्रमशः) निर्विकल्पक तथा सविकल्पक ज्ञान के विषय हैं---यह कहा जाता है।
इसके पश्चात् नाभि से हृदय तक आती हुई उस वायु से प्रगट होने वाली उन उन (विभिन्न) अर्थों के वाचक शब्द-स्फोट रूप, श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा श्रवणीय न होने के कारण सूक्ष्म तथा जप आदि में (केवल) बुद्धि द्वारा ज्ञेय वाणी 'मध्यमा' कहलाती है। १. तुलना करो-प्रपंचसार (पट० १, श्लोक ४३);
बिन्दोस् तस्माद् भिद्यमानाद् रवोऽव्यक्तात्मकोऽभवत् । स एव श्रुति-सम्पन्नै: शब्दब्रह्म ति गीयते ॥ वंमि में 'सविकल्पक' पाठ नहीं है ।
२.
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