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स्फोट-निरूपण
इस प्रकार उच्चारणोत्तरकाल में नष्ट हो जाने वाले इन वर्गों का समुदाय तो बन ही नहीं सकता साथ ही इन वर्गों में 'पूर्व' तथा 'पर' का भी व्यवहार नहीं हो सकता, क्योंकि एक साथ स्थित वर्गों के विषय में ही यह कहा जा सकता है कि यह वर्ण पहले है तथा यह बाद में है। इसका कारण यह है कि पूर्वापरता अपेक्षाकृत होती है । और इस पूर्वापर-व्यवहार के न हो सकने पर "इको यण अचि" जैसे सूत्रों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि यहाँ, सप्तमी निभक्ति-निर्दिष्ट 'अचि' जैसे शब्दों के कारण उपस्थित होने वाले "तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य' इस परिभाषा-सूत्र के आधार पर, "इको यरण प्रचि" सूत्र का अर्थ यह होगा कि- "अच्' वर्ण के परे होने पर अव्यवहित पूर्व में विद्यमान 'इक्' के स्थान पर 'यण' होता है।" इसी प्रकार उन अनेक सूत्रों में जिनमें सप्तमी या पंचमी विभक्ति का प्रयोग हुआ है, 'पूर्व' तथा 'पर' का व्यवहार न हो सकने के कारण महती असंगति उपस्थित होगी। अतः वर्णों को वृत्तियों का आश्रय नहीं माना जा सकता।
[इस विषय में नयायिकों का मन्तव्य]
यत्त तार्किकाः-वर्णानाम् अनित्यत्वेऽपि उत्तरोत्तर-वर्णे पूर्व-पूर्व-वर्णवत्त्वम् अव्यवहितोत्तरत्व-सम्बन्धेन संस्कारवशाद् गृह्यते इति पदस्य' प्रत्यक्षत्वाच् छाब्दबोधः । यद् वा पूर्व-पूर्व-वर्णजाः शब्दा: 'शब्दज-शब्द'-न्यायेन चरमवर्ण-प्रत्यक्ष-पर्यन्तं जायमाना एव सन्ति इति न पद-- प्रत्यक्षानुपपत्तिः। यद् वा पूर्व-पूर्व-वर्णानुभव-जन्य-संस्कार
सध्रीचीन-चरम-वर्णानुभवतः शाब्द-बोध:-इत्याहुः । नैयायिक जो यह कहते हैं कि
(क) वर्णो के अनित्य होने पर भी बाद बाद में उच्चरित वर्ण में, व्यवधान-रहित उत्तरकालिकता के सम्बन्ध से, पूर्वोच्चारित वर्णो से युक्त होना (यह) संस्कार द्वारा गृहीत होता है ।
(ख) अथवा पूर्व-पूर्व-वर्ण से उत्पन्न शब्द (ध्वनि), 'शब्दज-शब्द' न्याय से उच्चार्यमारण पद के अन्तिम वर्ण के प्रत्यक्ष (श्रवण) होने तक, बार-बार उत्पन्न ही होते रहते हैं। इसलिए शब्द के प्रत्यक्ष होने में कोई असंगति नहीं है।
(ग) अथवा पहले पहले (के सब) वर्णो के अनुभव (श्रवण) से उत्पन्न संस्कार के साथ अन्तिम वर्ण के सुनने से शाब्द बोध होता है। १. ह०, वंभि०-पद
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