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स्फोट-निरूपणम्
['अभिधा' प्रादि वृत्तियों का प्राश्रय वर्णों को नहीं माना जा सकता]
ननु कोयं वृत्त्याश्रयः शब्दः ? वर्णाः प्रत्येकम् इति चेत्, न । द्वितीयादि-वर्णोच्चारण-वैयर्थ्यापत्तः। नापि वर्णसंघातः । उच्चरित-प्रध्वंसित्वेन यौगपद्यासम्भवात् । अभिव्यक्तेर् उत्पत्तेर् वा क्षणस्थायित्वात् । क्षणात्मककालस्य प्रत्यक्षायोग्यत्वेन तद्-अवच्छिन्न-वर्णस्याप्यप्रत्यक्षत्वात् । उच्चारणाधिकरण- कालोत्तर-काल-वृत्ति-ध्वंस-प्रतियोगित्वम् ‘उच्चरित-प्रध्वंसित्वम्' । 'इको यण अचि" (पा०६.१.७७) इत्यादौ "तस्मिन्"० (पा० १.१.६६) इति परिभाषोपस्कृत-वाक्यार्थे 'अयं पूर्वः', 'अयं परः', इति नष्टस्य प्रत्यक्ष-विषयेदंशब्देन पौर्वापर्य-व्यवहारायोगाच्च।
"वत्तियों का प्राश्रयभूत यह शब्द क्या है ? यदि प्रत्येक वर्णों को (प्राश्रय) माना जाय तो (वह ठीक) नहीं। क्योंकि तब (शब्द के) दूसरे तीसरे आदि वर्गों का उच्चारण अनावश्यक हो जाता है । और न ही वर्गों का समुदाय (वृत्तियों का आश्रय है) । क्योंकि वर्गों के उच्चरित एवं प्रध्वंसी (विनाशी स्वभाव वाला) होने के कारण वर्गों का एक साथ उपस्थित होना रूप समुदाय (बन सकना) असम्भव है। इसका कारण यह है कि वर्णों की (नित्यत्व पक्ष में) अभिव्यक्ति अथवा (अनित्यत्व पक्ष में) उत्पत्ति एक क्षण तक ही स्थित रहने वाली होती है। क्षणात्मक काल के प्रत्यक्ष-योग्य न होने के कारण उस (क्षण) में रहने वाला वर्ण भी अप्रत्यक्ष ही रहता है। उच्चरित प्रध्वंसी-स्वभाव वाला होने का अर्थ है (वर्ण के) उच्चारण के आधारभूत काल के पश्चात् उपस्थित होने वाले काल में उस वर्ण का अभाव हो जाना । और (इस प्रकार वर्गों के उच्चरित-प्रध्वसी होने पर) “इको यण, अचि" इत्यादि १. ह०-वर्णः। २. काप्रशु०-क्षणात्म-। ३. ह.योग्याच्च ।
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