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लक्षणा-निरूपण
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गृहाण । तथाहि शक्तिद्विविधा-प्रसिद्धा, अप्रसिद्धा च । आमन्दबुद्धिवेद्यात्वं प्रसिद्धात्वम् । सहृदय-हृदय-मात्रवेद्यात्वम् अप्रसिद्धात्वम् । तत्र गंगादि-पदानां प्रवाहादौ प्रसिद्धा शक्तिः, तीरादौ चाप्रसिद्धा, इति किमनुप
ननु “सर्वे सर्वार्थवाचकाः' इति चेद् ब्रूषे तहि 'घट'-पदात् पट-प्रत्ययः किन्न स्याद् इति चेन्न । “सति तात्पर्ये०" इति उक्तत्वात् , तात्पर्याभावाद् इति गृहाण । तात्पर्य चात्र ऐश्वरम्, देवता-महर्षि-लोक-वृद्ध-परम्परातो अस्मदादिभिर्लब्धम्, इति सर्वं सुस्थम् ।
इति लक्षणानिरूपरणम् (यदि लक्षणा वृत्ति न मानी जाय) तो किस प्रकार 'गंगा' शब्द से तट अर्थ का ज्ञान होगा? म्रान्ति में हो। "तात्पर्य होने पर सभी शब्द सभी अर्थ के वाचक हैं" इस भाष्य के कथन को ही अपनाओ। बात यह है कि शक्ति दो तरह की होती है-'प्रसिद्धा' तथा 'अप्रसिद्धा' । 'प्रसिद्धा' वह है जिसे थोड़ी बुद्धि वाले लोग भी जान लें तथा 'अप्रसिद्धा' वह है जिसे केवल सहृदयों (व्युत्पन्न एवं प्रौढ़ जनों) के हृदय ही जान सकें। उनमें 'गंगा' आदि (पदों) की प्रवाह आदि अर्थों में जो शक्ति है वह 'प्रसिद्ध' है तथा तट आदि अर्थों में जो शक्ति है वह 'अप्रसिद्ध' है, इस रूप में मानने में क्या कठिनाई है ?
यदि "सभी शब्द सभी अर्थों के वाचक हैं'' यह कहते हो तो 'घट' शब्द से वस्त्र का ज्ञान क्यों नहीं होता? यह प्रश्न उचित नहीं है क्यों कि 'सति तात्पर्ये' इस विशेषण के कहे जाने के कारण ('घट' शब्द के प्रयुक्त होने पर वक्ता का पट-विषयक) 'तात्पर्य' के न होने से (ही ऐसा नहीं होता) यह समझो। और यह तात्पर्य ईश्वरकृत (अनादि) है तथा देवता, महर्षि, लोक (परम्परा) और वृद्ध-परम्परा से हम लोगों ने उसे जाना है । इस रूप में सब सुसंगत हैं ।
नैयायिकों तथा साहित्यिकों को अभिमत लक्षणा वृत्ति का यहाँ नागेश ने विभिन्न हेतुओं द्वारा खण्डन कर दिया है। इस खण्डन में प्रथम हेतु है—“सति तात्पर्ये सर्वे सर्वार्थवाचकाः" यह सिद्धान्त । द्वितीय हेतु है-लक्षणा मानने पर दो प्रकार की वृत्तियों तथा उनके आधार पर दो प्रकार के कार्य-कारण-भाव की कल्पना । तथा तृतीय हेतु है--लक्षणा वृत्ति जैसी जघन्यवृत्ति की कल्पना करना । लक्षणा को जघन्य वृत्ति इस कारण माना जाता है कि अभिधा वृत्ति, शब्दोच्चारण के तुरन्त पश्चात्, सीधे उपस्थित होती है तथा उसके बाद लक्षणा वृत्ति की उपस्थिति मानी जाती है। इसके अतिरिक्त लक्षणा वृत्ति में शब्द का जो अपना अर्थ नहीं है उसका शब्द में उपचार अथवा आरोप करना पड़ता है। १. ह.-मात्रावगाह्यत्वम् । वंमि०-मात्राऽवेद्यात्वम् । २. ह.--ननु यदि । ३. प्रकाशित संस्करणों में 'सुरूतम् ।
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