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अपने उछ परिणाम से, यही बात प्रतिमादिक के पूजनेमे अन्नीष्ट है अर्थात् मानीजाती है, का रण की सत्पुरुषोंको फललान समारोप समर्पित है अर्थात् देवता बुछिकर मानने से प्राप्य है, मही तो पत्थर लकडी क्या फल देसकती है (२४) जो पुरुष इहां अच्छे परिणामों से लककी पत्थर देव बुछी करके पूजते हैं वह शुनफल को प्राप्त होते ही हैं यह निश्चय है तो प्रत्यदा साधुके पूजनेमे क्या शुन्नफलका लान न होगा? (२५) कालोचित
र्थात् जिस जिस कालमें जैसे जैसे साधु हैं उनको छोड़ जो कुबुछी सुसाधुकों खोजता है, वह दुष्ट दाता और पात्र इन दोनोंसे हीन होके नरकादि गति मे जायगा अर्थात् कालोचित साधकों तो देनेका पचखाण किया भर सुसाधुको खोजने लगा तो सुसाधु मिलही नही सकता सुसाधुके सिवाय दान देगा नही तो इतोभ्रष्ट ततोभ्रष्ट होके नीच गतीका अधिकारी होगा (२६) जो कोई ग्रासादि मात्र देनेमे शर्थात् खानेकी अन्ल रोटी देनेमेनी यह पात्र है की नही ऐसी परीक्षा करते हैं वह तुच्छ अधम है, खाने पीने के देनेमे भी परीक्षा करना शिष्ट अच्छे पुरुषोंका लक्षण नही है (२७) नेषजा दिक अर्थात् औषध बगैरे खानेपीने की वस्त लेनेकी इच्छा से साधुको घरमे आवने पर उसकी श्वज्ञा करना न देना निंदा करना इसके
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