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लोगों के बहुमान करने से उस शुनमति मुनिका चारित्र मेभी परिणाम होजायगा (१६) चारित्र से हीनन्नी साधु अन्य दर्शनी साधुके समान नही होता है, जैसा कि सोने का फूटा घमा मही के घडेके समान नही होता है (१७) यदि वर्तमान कालमे दुखमां कालके स्वभाव से साधुओंमे चा रित्र नही दृष्ट होता है तोनी कितने साधुओ मे भावचारित्र नही नष्ट होता है (१८) इस काल में शतीचार सहित चारित्रबाले साध तीर्थं करोने कहे हैं सो सत्य बात है कैसे फूट होय (१९) का लादिके दोषसे कईएक साधुशेमे अनास्था करते है अर्थात् एककोई साधु को शिथिलाचारी देख के सब साधुप्रोको शिथिलही समझ लेते हैं वह अपने आत्माको ठगते हैं (२०) जो चित्त से सा धुओंके ऊपर द्वेष रखते हैं वचन से दोष ग्रहण करते हैं काया से बंदनादि व्यवहार रहित हैं वह अधम धर्मके द्वेषी हैं (२१) वह दर्शन के द्वेषी इहां भी अच्छे शिष्टोंके शत्रु हैं अर्थात् शच्छे लो गोंके प्रशंसा योग्य नही हैं और मरकरके दुर्गती मे जायंगे वह दुष्ट परिणामी लोग शनंतसंसार बढावेंगे (२२) इस बात को अति शुछ चित्त से विचार करके जिसकिसी अल्प गुणी साधुको दे खके बुछिमान पुरुष बडे मानसे सर्व गुण संपूर्ण पूजें (२३) और मनुष्य जो फल पायता है सो
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