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नायके महिमा करने द्रव्यादि देने गुरु बुद्धि से मा ननेका निषेध किया और माननेवालोंकों पापफल कहा सो इनमे नही क्योंकि सिद्धांतोक्त संयती अविरती पाखंडी के लक्षण इनमें नही, संयमकों पालते हैं व्रतभी करते हैं ॥
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और लिंगधारी कहके जो माननेका निषेध लिखा तो कुलिंगीको मानना वा लिंगहीनको मानना ? लिंगधारीही को मानना यह तो प्रसिद्ध है जैसा सम्यग्दृष्टि राजाश्रेणिकने साधुलिंगधारी देवताको मच्छी मारते देखकेभी साधुलिंगमात्र से वंदना किया, और सगर्नासाध्वी के रूपसे ठप्रादि मां गते देखकेनी साध्वी लिंगमात्र से वंदना किया, कारण की उस समय उनमे कोई विशिष्ट क्रिया नही थी, लिंगमात्र देखनेही से वंदन सत्कारादि करने मे प्रमाण वचनजी हैं, सिद्धाचलमाहात्म्यके प्रथम सर्गमे श्रीधनेश्वर सूरीजीने कहा है ॥ "चारित्रिणोमहासत्वाव्रतिनः संतुदूरतः । नि ष्क्रियी प्यगुणज्ञोपिनविराध्योमुनिःक्वचित् १ ॥ यादृशंतादृशंवापि दृष्ट्वा वेषधरंमुनिम् । गृही गौतमवक्त्या पूजयेत्पुण्यकाम्यया ॥ २ ॥ वंदनीयो मुनेर्वेषो नशरीरादिकस्यचित् । प्र तिवेषं ततोदृष्ट्वा पूजयेत्सुकृतीजनः ॥ ३ ॥ चारित्र को पालनेवाले महासत्वव्रती दूर रहें परंतु क्रिया रहित गुणज्ञ अर्थात् ज्ञान दर्शनको