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प्रधान सम्पादकीय
III
कारण यह विचारभेद भी है किन्तु उसी ब्राह्मण परम्परामें ऐसे सत्य-प्रेमी भी हुए जिन्होंने उसे हृदयसे स्वीकार किया और अपने गुरु महावीर भगवान्का अनुगमन किया।
आचार्य सकलकीर्तिने अपने वीरवर्धमानचरितमें महाकवि असग की तरह ही केवलज्ञानके पश्चात् समवसरणका निर्माण कराकर गणधरकी उपलब्धि होनेपर भगवान्की देशना करायी है। पश्चात् उनका विहार कराकर राजगृहीमें समवसरणकी रचना करायी है। किन्तु भगवान की प्रथम धर्मदेशना राजगृहीमें ही श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके ब्राह्ममहर्तमें होनेके प्राचीन उल्लेख है। ग्रन्थकारादिका परिचय ग्रन्थ सम्पादक पं. हीरालालजीने अपनी प्रस्तावनामें दिया है। हमें प्रसन्नता है कि उन्होंने ग्रन्थका सम्पादनादि कार्य परिश्रमपूर्वक समयसे किया है।
सकलकीर्ति एक प्रभावशाली भट्टारक थे । भट्टारक परम्परा यद्यपि एक नवीन परम्परा थी और उसमें बुराइयां भी आ गयी थीं। विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके ग्रन्थकार पं. आशाधरने अपने अनगार-धर्मामतमें ( २१९६ ) उनके आचरणको म्लेच्छोंके तुल्य कहा है। किन्तु इस परम्पराने संरक्षणका भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । उसे भुलाया नहीं जा सकता। अस्तु ।
हम भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक दानवीर साहू शान्तिप्रसादजी और ज्ञानपीठकी अध्यक्षा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमा जैनके अतिकृतज्ञ हैं जिनकी प्राचीन भारतीय साहित्यके उद्धारकी महती भावना तथा अभिरुचि है। ज्ञानपीठके मन्त्री बाबू लक्ष्मीचन्द्रजी भी धन्यवादाह हैं जिनके सहयोग और श्रमसे मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाका प्रकाशन कार्य बराबर प्रगति पर है।
द्वि० भाद्रपद शुक्ल वि.सं.२०३१
आ. ने. उपाध्ये कैलाशचन्द्र शास्त्री
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