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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[६.४३दृञ्चिद्वृत्ततपोऽानां तद्वतां च सुयोगिनाम् । सर्वार्थसिद्धिदं कुर्यात् त्रिशुद्ध्या विनयं चिदे ॥४३॥ आचार्यादिमनोज्ञान्तानां पूज्यानां जगद्-बुधैः । सुश्रूषाज्ञादिभिर्वैयावृत्त्यं स दशधा चरेत् ॥४४॥ करोति पञ्चभेदं स्वाध्यायं योगवशीकरम् । निःप्रमादोऽङ्गपूर्वाणां मनोऽक्षदमनाय सः ॥४५॥ त्यक्त्वाङ्गादौ ममत्वं स न्युत्सगं भजतेऽन्वहम् । कर्मारण्यानलं धीमानिर्ममत्वसुखाप्तये ॥४६॥ अनिष्टयोगजं स्वेष्टवियोगजनितं महत् । रोगोत्थं च निदानं हीत्यार्तध्यानं चतुर्विधम् ॥४७॥ तिर्यग्गतिकरं निन्यं क्लिष्टाशयभवं सुधीः । धर्मशुक्लात्तचितोऽसौ स्वप्नेऽपि नाश्रयत् क्वचित् ॥४८॥ सत्त्वहिंसानृतस्तेयोपधिरक्षाविधायिनाम् । आनन्दप्रभवं निन्यं रौद्रध्यानं चतुर्विधम् ॥४९॥ रौद्रकर्माशयोत्पन्नं नरकाध्वफलावहम् । धर्मोज्ज्वले मनाग नास्य चित्ते धत्ते पदं क्वचित् ॥५०॥ आज्ञापाय-विपाकाख्य-संस्थानविचयान्यपि । धर्मध्यानानि चत्वारि स्वर्गाग्रफलदानि च ॥५॥ प्रशस्तायौंधचिन्तादिशुद्धाशयभवानि सः । सर्वावस्थासु सर्वत्र ध्याये देकाप्रचेतसा ॥५२॥ पृथक्त्वाभिधमेकत्वावीचाराह्वयमूर्जितम् । सूक्ष्मक्रियाच्यवनाख्यं शेषक्रियनिवर्तकम् ॥५३॥ चतुर्धति महद्-ध्यानं शुक्ल साक्षाच्छिवप्रदम् । निर्विकल्पहृदा धीमान् ध्यायत्येष वनादिषु ॥५४॥ इति द्वादशभेदानि तपांस्यत्र महान्ति सः । कमन्द्रियादिशत्रणां घातने वज्रमान्यपि ॥५५॥
विश्वर्धिसुखबीजानि कैवल्योत्पादकानि वै। समीहितार्थकर्तृणि सर्वशक्त्या सदाचरत् ॥५६॥ स्वीकृत व्रतोंकी शुद्धि करता है । अतः निःप्रमाद होकर वे आत्म-शुद्धिके लिए आलोचनादि दश भेदोंके द्वारा प्रायश्चित्त तप निरन्तर करने लगे ॥४२॥ वे मुनिराज दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप
और इनको धारण करनेवाले पूज्य योगियोंका सर्व अर्थकी सिद्धि करनेवाला विनय आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिए करने लगे ॥४३॥ वे आचार्य, उपाध्यायसे लेकर मनोज्ञ पर्यन्त दश प्रकारके जगत्-पूज्य पुरुषोंकी वैयावृत्य शुश्रूषा करके और आज्ञा-पालनादिके द्वारा करने लगे ॥४४॥ वे मन और इन्द्रिय दमनके लिए योगोंको वशमें करनेवाला अंग-पूर्वोका पाँच भेदरूप स्वाध्याय प्रमाद-रहित होकर के करने लगे ॥४५॥ वे ज्ञानी मुनिराज शरीरादिमें ममत्व त्याग कर कर्मरूप वनको जलानेके लिए अग्नि समान व्युत्सर्ग तप निर्ममत्वरूप सुखकी प्राप्तिके लिए निरन्तर करने लगे ॥४६||
वे बुद्धिमान् मुनिराज अनिष्टसंयोगज, इष्टवियोगजनित, रोग-जनित और निदानरूप चारों प्रकारके महानिन्द्य तिर्यम्गतिको करनेवाले और संक्लिष्ट चित्तसे उत्पन्न होनेवाले आर्तध्यानको कभी स्वप्नमें भी आश्रय नहीं करते थे, किन्तु धर्म और शक्लध्यानमें ही अपना चित्त संलग्न रखते थे ॥४७-४८|| वे जीवहिंसा, अनृत ( असत्य), चोरी और परिग्रहके संरक्षण करनेवाले जीवोंको आनन्द उत्पन्न करनेवाला, रौद्रकर्मके अभिप्रायसे उत्पन्न होनेवाला, नरकमार्गके फलको देनेवाला चारों प्रकारका निन्द्य रौद्रध्यान अपने धर्मध्यानसे उज्ज्वल चित्तमें कभी भी रंचमात्र नहीं रखते थे ॥४९-५०॥ वे नन्दमुनिराज उत्तम तत्त्वोंके चिन्तवन आदि शुद्ध अभिप्रायसे उत्पन्न होनेवाले, आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचयरूप चारों प्रकारके धर्मध्यानको जो कि स्वर्गके उत्तम फलोंको देनेवाला है, सभी अवस्थाओं में सर्वत्र एकाग्रचित्तसे ध्याते थे॥५१-५२।। वे बुद्धिमान मुनिराज पृथक्त्व वितर्कसवीचार, एकत्व वितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति और शेषक्रिया निवृत्तिरूप चारों प्रकारके महान् शुक्लध्यानको, जो कि साक्षात् मोक्षका दाता है, वन आदि एकान्त स्थानोंमें ध्याते थे ॥५३-५४||
इस प्रकार बारह भेदरूप महातपोंको, जो कि कर्म और इन्द्रिय आदि शत्रुओंके घातनेमें वज्रके समान हैं, संसारकी समस्त ऋद्धि और सुखके बीजस्वरूप है, केवलज्ञानके उत्पादक है और अभीष्ट अर्थक करनेवाले हैं, सदा सर्वशक्तिसे आचरण करते थे ॥५५-५६।।
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