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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [६.१३आकिञ्चन्यमनुष्ठेयं योगैय॒त्सर्गपूर्वकम् । धर्मबीजं सुधर्माय चिन्तातीतसुखाकरम् ॥१३॥ ब्रह्मचर्य मुदा सेव्यं परमं धर्मकारणम् । धर्मार्थिभिर्विधाय स्वाम्बासमाः सकलाः स्त्रियः ॥१४॥ अमीभिलक्षणः सारैर्दशभियें मुमुक्षवः । कुर्वते परमं धर्म मुक्तिदं यतिगोचरम् ॥१५॥ विश्वाभ्युदयशर्माणि ते समाप्य जगत्त्रये । तत्फलेनाचिरानूनं भवन्ति मुक्तिवल्लभाः ॥१६॥ साक्षादस्याप्यनुष्ठानं दूरे तिष्ठन्तु धीमताम् । धत्ते तन्नाममात्रं यः सोऽपि न स्यात् सुखातिगः ॥१७॥ इत्येवं धर्ममाहात्म्यं विचार्य क्षणमङ्गुरम् । भवभोगाङ्गवस्तूनां निःसारं च विवेकिमिः ॥१८॥ त्यक्त्वा भोगाङ्गसंसारान् हवा मोहाक्षशात्रवान् । स्वरितं सर्वशक्त्यात्र धर्मः साध्यः शिवाप्तये ॥१९॥ इति तस्योक्तमाकर्ण्य निवेदं त्रिविधं नृपः । भासाद्य निर्मले चित्ते चिन्तयेदित्थमात्मवान् ॥२०॥ अनन्तदुःखसंतानप्रदोऽहोचान्तवर्जितः । संसारोऽनादिरेवायं कथं स्यात् प्रीतये सताम् ॥२१॥ भवो यदि खलो नास्ति चाखिलाशर्मपूरितः । तर्हि त्यक्तः कथं मुक्त्यै जिनाद्यैः शर्मशालिमिः ॥२२॥ क्षुत्तटकामकोपाद्याः प्रज्वलन्त्यमयोऽनिशम् । यत्र कायकुटीरेऽस्मिन् धीमतां तत्र का रतिः ॥२३॥ यत्राक्षतस्कराः सर्वे धर्मार्थापहारिणः । वसन्ति तत्र काये कः सुधीर्वसितुमीहते ॥२४॥ दुःखपूर्वास्तदन्तेऽतिदुःखदाहादिवर्धिनः । पराधीनाश्चला भोगा ये तान् कः सेवते बुधः ॥२५॥ ये भोगा दुःकरा जाता रामास्वाङ्गकदर्थनैः । त्याज्या महगिरासेव्याः क्षुद्वैस्ते किं सुखावहाः ॥२६॥ यद्यद् विचार्यते वस्तु मोगाङ्गेषु सुखेषु च । तत्तत्परां घृणां दत्ते साधुबुद्ध्या शुमं न च ॥२७॥ हेतु देना चाहिए ॥१२॥ कायोत्सर्गपूर्वक शरीरसे ममता त्याग कर त्रियोगोंसे अचिन्त्य सुखाकर और धर्मका बीज आकिंचन्य उत्तम धर्मकी प्राप्तिके लिए अनुष्ठान करना चाहिए ॥१३।। धर्मार्थीजनोंको सर्व स्त्रियाँ अपनी माताके समान समझकर धर्म के कारणभूत परम ब्रह्मचर्य हर्षसे सेवन करना चाहिए ॥१४॥ जो मोक्षाभिलाषी लोग इन सारभूत दश लक्षणोंके द्वारा मुनि-सम्बन्धी और मुक्तिदाता इस परम धर्मको करते हैं, वे इस तीन जगत्में उसके फलसे समस्त अभ्युदय-सुखोंको प्राप्त कर शीघ्र ही नियमतः मुक्तिके वल्लभ होते हैं ॥१५-१६॥ बुद्धिमानोंके इस धर्मका साक्षात् आचरण तो दूर रहे, किन्तु जो धर्म के नाम मात्रको भी धारण करता है, वह भी कभी दुःखी नहीं होता ।।१७। इस प्रकारसे धर्मका माहात्म्य विचार कर, तथा संसार, शरीर-भोग आदि वस्तुओंको क्षणभंगुर और निःसार जानकर विवेकियोंको चाहिए कि वे संसार, शरीर और भोगोंको छोड़कर, तथा मोह और इन्द्रियरूप शत्रुओंका नाश कर, शिव-प्राप्तिके लिए पूर्ण शक्तिसे शीघ्र धर्म साधन करें ॥१८-१९॥ इस प्रकार मुनिराज-भाषित धर्मको सुनकर और संसार-शरीर भोगोंसे निर्वेदको प्राप्त होकर वह आत्महितैषी राजा अपने निर्मल चित्तमें इस प्रकार विचारने लगा ।।२०।। अहो, अनन्त दुःखोंकी सन्तानको देनेवाला यह अनादि अनन्त संसार सज्जन पुरुषोंकी प्रीतिके लिए कैसे हो सकता है ॥२॥ यदि यह संसार दुष्ट और समस्त दुःखोंसे भरपूर न होता, तो सुखशाली तीर्थकरादि महापुरुषोंने मुक्ति-प्राप्तिके लिए इसे कैसे छोड़ा ।।२२॥ जिस शरीर रूपी कुटीरमें क्षुधा, तृषा, काम-क्रोध आदि अग्नियाँ निरन्तर प्रज्वलित रहती हैं, उस शरीरमें बुद्धिमानोंकी प्रीति कैसे सम्भव है ॥२३॥ जिस शरीरमें धर्मादिरूप धनको चुरानेवाले सभी इन्द्रियचोर रहते हैं उस शरीरमें कौन बुद्धिमान रहनेकी इच्छा करता है ।।२४।। जो भोग दुःखपूर्वक उत्पन्न होते हैं, अन्तमें अतिदःख एवं दाहको बढाते हैं, पराधीन हैं और चंचल हैं, उन्हें कौन ज्ञानी पुरुष सेवन करता है ।।२५।। जो भोग स्त्री और अपने शरीरके संघटनसे उत्पन्न होते हैं, दुःखकारक हैं और महापुरुषोंके द्वारा त्याज्य हैं, वे क्या क्षुद्रजनोंके द्वारा सेव्य और सुखकारक हो सकते हैं ? कभी नहीं ॥२६।। भोगोंके कारणों में और उनके सुखोंमें निर्मल बुद्धिसे जिस-जिस वस्तुका विचार करते हैं, वह-वह वस्तु अत्यन्त घृणा पैदा करती है, कोई भी शुभ प्रतीत नहीं होती For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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