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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ ५.११८
तत्रोपपादय्यायां प्राप्य यौवनमूर्जितम् । तत्कालजावधिज्ञानेन ज्ञात्वा प्राक्तपःफलम् ॥ ११८ ॥ भूत्वा धर्मे रतोऽत्यन्तं साक्षात्तत्फलदर्शनात् । तदाप्त्यै श्रोजिनागारं ययौ रत्नमयं सुरः ॥ ११९ ॥ तत्र श्रीजिनबिम्बानां पूजनं परमं मुदा । साधं स्वपरिवारेण चक्रेऽनिष्टविनाशनम् ॥ १२० ॥ संकल्पमात्रसंजातैर्दिव्यैरर्चनवस्तुभिः । सोऽष्टभेदैर्नमः स्तोत्रैस्तूर्यत्रिकमहोत्सवैः ॥ १२१ ॥ पुनश्चैत्यद्रुमाधःस्थाः प्रतिमा अर्हतां शुभाः । अभ्यर्च्य मध्यलोकानि मेरुनन्दीश्वरादिषु ॥१२२॥ गत्वाचया जिनाचश्च समस्ताः कृत्रिमेतराः । भूयो नश्वा जगज्ज्येष्ठांस्तीर्थेश मुनिपुङ्गवान् ॥ १२३ ॥ बहूनि धर्मतत्वानि श्रुत्वा तच्छ्रीमुखाम्बुजात् । श्रेयोऽलं समुपार्ज्यासावाययौ निजमाश्रयम् ॥ १२४ ॥ स्वपुण्यजनितां लक्ष्मीमप्सरः स्वर्विमानगाम् । स्वीकृत्येति परान् भोगान् भुनक्त्येषोऽक्ष तृप्तिदान् ॥ १२५ ॥ अष्टादशसमुद्रायुश्चक्षुरुन्मेषवर्जितः । सप्तधातुमलातीत सार्धंत्रिकरदेहवान् ॥ १२६ ॥ अष्टादश सहस्राब्दैर्गतैः सर्वाङ्गशर्मदम् । अमृताहारमादत्ते मनसा स च्युतोपमम् ॥ १२७॥ नवमासैर्व्यतीतैः स उच्छ्वासं लभते मनाक् । चतुर्थक्षितिपर्यन्तं वेत्ति द्रव्यश्चराचरान् ॥ १२८ ॥ मूर्तान् स्वावधिना यातायातं कर्तुं क्षमोऽमरः । विक्रियर्द्धिप्रभावेण क्षेत्रेऽवधिप्रमेऽनिशम् ॥१२९॥ सौधोद्यानाहि देशेष्वसंख्यद्वीपाद्विषु स्वयम् । स्वेच्छया विहरन् कुर्यात् क्रीडां देवीभिरन्वहम् ॥१३०॥ क्वचिद्वीणादिवादित्रैः क्वचिद् गोतैर्मनोहरैः । कचिदिन्याङ्गनानां सच्छृङ्गाररूपदर्शनैः ॥ १३१ ॥ अन्यदा धर्मगोष्ठीभिः क्वचित्केवलिपूजनैः । अन्येद्युरर्हतां पञ्चकल्याणपरमोत्सवैः ॥ १३२ ॥ इत्याद्यन्यायक मौधैर्धर्मेण शर्मणामरः । नयन् कालं सुरैः सेव्यस्तस्थौ सौख्याधिमध्यगः ॥ १३३॥
महान् पराक्रमको उत्तम प्रकारसे व्यक्त कर क्षुधा, पिपासा आदि बाईस परीषहोंको सहन कर और मुक्तिकी मातास्वरूप चारों आराधनाओंकी सम्यक् प्रकारसे आराधना कर जिनध्यान में तत्पर वे प्रियमित्र नामके मुनीन्द्र अति प्रयत्नके साथ प्राणोंको छोड़कर उस तपश्चरणादिसे उपार्जित पुण्यके उदयसे सहस्रार स्वर्ग में महासूर्यप्रभ नामके देव हुए ||११३-११७॥
वहाँ उपपादशय्यापर पूर्ण यौवन अवस्थाको प्राप्त कर, तत्काल उत्पन्न हुए अवधिज्ञानसे पूर्वजन्मकृत तपका फल जानकर साक्षात् उसका फल देखनेसे और भी अधिक धर्मकी प्राप्ति के लिए धर्म में अत्यन्त निरत होकर वह देव अपने विमानके रत्नमय श्री जिनालय में गया | ११८ - ११९ ।। वहाँपर हर्षसे अपने परिवारके साथ श्री जिनबिम्बोंका अनिष्ट-विनाशक परम पूजन संकल्पमात्रसे उत्पन्न हुए अष्टभेदरूप दिव्य पूजन- द्रव्योंसे तथा नमस्कार, स्तोत्र, तीन प्रकारके वाद्यों द्वारा महोत्सव - पूर्वक करके, पुनः चैत्य वृक्षोंके नीचे अवस्थित अर्हन्तोंकी शुभ प्रतिमाओं को पूजकर, मध्यलोकमें जाकर वहाँके मेरु पर्वत नन्दीश्वर द्वीप आदिमें स्थित समस्त कृत्रिम अकृत्रिम जिनप्रतिमाओंका पूजन करके, उन्हें नमस्कार कर पुनः जगत्- शिरोमणि तीर्थंकरों और श्रेष्ठ मुनिजनोंको नमस्कार कर उनके श्रीमुखकमलसे बहुत प्रकारसे धर्म और तत्त्वोंका स्वरूप सुनकर और पुण्यका उपार्जन कर वह देव अपने स्थानको वापस आया ।।१२०-१२४ ॥ वहाँपर अपने पुण्यसे उत्पन्न अप्सराओं एवं स्वर्ग-विमान-गत अन्य लक्ष्मीको स्वीकार करके इन्द्रियोंको तृप्त करनेवाले परम भोगोंको वह देव भोगने लगा ॥ १२५ ॥ | वह अठारह सागरोपम आयुका धारक, नेत्रोंके उन्मेषसे रहित और सप्त धातु वर्जित साढ़े तीन हाथ प्रमाण शरीरवाला था || १२६ || अठारह हजार वर्ष बीतने पर सर्वांगको सुखदायी, उपमा-रहित अमृत- आहारको मनसे ग्रहण करता था ॥ १२७॥ नौ मास बीतने पर वह कुछ उच्छ्वास लेता था। चौथी पृथिवीतकके चर-अचर मूर्त द्रव्यों को अपने अवधिज्ञानसे जानता था, और विक्रिया ऋद्धिके प्रभावसे अवधिज्ञान प्रमाण-क्षेत्रमें निरन्तर गमनागम करनेमें वह देव समर्थ था ।। १२८ - १२९ ॥ भवन, उद्यान, पर्वत- प्रदेश, असंख्यात द्वीप समुद्र और पर्वतादिपर स्वयं स्वेच्छासे विहार करते हुए देवियोंके साथ
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