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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ ५.२७
ततः सद्धर्मसिद्ध्यर्थं गत्वा श्रीजिनमन्दिरे । चकार परमां पूजां विश्वाभ्युदयकारिणीम् ||२७|| जलाद्यष्टविधैर्द्रव्यैस्तत्रोत्पन्नइच्युतोपमैः । समं तूर्यनिकैर्मक्त्या स्तुतिस्तवनमस्कृतैः ||२८|| पुनस्तिर्य लोके च जिनमूर्तीर्जिनेशिनः । नत्वा प्रपूज्य तद्वाणीं श्रुत्वा सत्पुण्यमार्जयत् ||२९|| इति धर्मात्तचित्तोऽसौ चतुः करोन्नताङ्गमाक् । षोडशाब्धिप्रमायुकः शुभलेश्याः शुभाशयः ॥ ३० ॥ चतुर्थावनिपर्यन्तं मूर्तिवस्तुचराचरम् । जानन् स्वावधिना युक्तो विक्रियद्धिं च तत्समाम् ||३१|| गतैर्गृह्णन् सुधाहारं सहस्रवर्षषोडशैः । मजन् सुगन्धिमुच्छ्वासं पक्षैः षोडशभिर्गतैः ॥ ३२ ॥ प्राक्तपश्चरणोत्पन्नान् दिव्यान् भोगाननारतम् । स्वदेवीभिर्महामत्या भुञ्जानोऽनल्पशर्मदान् ||३३|| निरौपम्यान् नृलोकेऽस्मिन् धर्मध्यानपरायणः । मुदास्ते निर्जरस्तत्र निमग्नः सुखसागरे ||३४|| अथ सद्धातकीखण्डे द्वीपे पूर्वाभिधानके । विदेहे पूर्वसंज्ञेऽस्ति विषयः पुष्कलावती ||३५|| प्रागुक्तवर्णना तत्र नगरी पुण्डरीकिणी । महती शाश्वता दिव्या चक्रिभोग्या हि विद्यते ॥ ३६ ॥ पतिस्तस्याः सुमित्राख्यो नरेशोऽभूत् सुपुण्यवान् । राज्ञी तस्याभवद्म्या सुव्रताख्या व्रताङ्किता ||३७ ॥ महाशुक्रास आगत्य देवोऽतिदिव्यलक्षणः । प्रियमित्राभिधो जातस्तयोः पुत्रो जगत्प्रियः ॥३८॥ तत्पितास्य विभूत्यादौ कृत्वा तां जिनालये । महाभिषेकसत्पूजां विश्वाभ्युदय शर्मदाम् ॥ ३९ ॥ दत्वा दानानि बन्धुभ्योऽनाथवन्दिभ्य एव च । सुर्य त्रिककेत्वाद्यैर्व्यधाज्जातमहोत्सवम् ॥४०॥ द्वितीयाचन्द्रवद्विश्वजनतानन्दवर्धकः । सुरूपातिशयैर्योग्यैः पयःपानान्नवस्तुभिः ॥४१॥
गया ।।२५-२६।। तत्पश्चात् उत्तम धर्मकी सिद्धिके लिए श्री जिनमन्दिरमें जाकर समस्त लौकिक सुखोंकी सिद्ध करनेवाली परमपूजा, स्वर्ग में उत्पन्न हुए अनुपम जलादि, अष्टविध द्रव्योंसे भक्ति-द्वारा तीनों प्रकार के बाजों के साथ, स्तुति, स्तवन और नमस्कार पूर्वक की || २७-२८|| पुनः तिर्यग्लोक और मनुष्यलोकमें जिनेन्द्रोंकी जिनप्रतिमाओंकी पूजा करके नमस्कार कर और जिनराजोंकी वाणीको सुनकर ब्रह्मदेवने उत्तम पुण्यको उपार्जन किया ||२९|| इस प्रकार ह देव सदा धर्म में चित्त लगाकर अपना समय व्यतीत करने लगा । उसका शरीर चार हाथ उन्नत था, सोलह सागरोपम आयु थी, शुभलेश्या और शुभमनोवृत्ति थी ||३०|| चौथी पृथिवीतक अपने अवधिज्ञानसे सभी मूर्तिके चराचर वस्तुओंको जानता हुआ वहाँ तक की विक्रिया ऋद्धिकी शक्तिसे युक्त था । सोलह हजार वर्ष बीतने पर वह अमृत आहारको ग्रहण करता था, और सोलहपक्ष बीतनेपर सुगन्धित उच्छ्वास लेता था ।। ३१-३२ ।। पूर्वभव में किये गये तपश्चरण से उत्पन्न हुए, भारी सुख देनेवाले दिव्य भोगोंको महाविभूतिसे अपनी देवियोंके साथ निरन्तर भोगने लगा । वहाँके अनुपम भोगोंकी इस मनुष्य लोकमें कोई उपमा नहीं है । इस प्रकार वह देव आनन्दसे सुख- सागर में निमग्न रहने लगा ।।३३-३४।।
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अथानन्तर उत्तम धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व भागवर्ती पूर्व विदेहमें पुष्कलावती नामका देश है । वहाँ पर पूर्वोक्त वर्णनवाली पुण्डरीकिणी नगरी है जो विशाल, शाश्वती, दिव्य और चक्रवर्ती द्वारा भोग्य है || ३५-३६ || उस नगरीका स्वामी सुमित्र नामका अतिपुण्यवान् राजा था। उसकी व्रत-भूषित सुव्रता नामकी सुन्दरी रानी थी। उन दोनोंके महाशुक्र विमानसे आकर वह देव दिव्यलक्षणवाला, जगत्प्रिय, प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ । जन्म होनेपर उसके पिताने भारी विभूतिके साथ सर्वप्रथम जिनालय में जाकर समस्त अभ्युदय सुखों को देनेवाली महाभिषेक पूर्वक उत्तम पूजा की || ३७-३९ || पुनः बन्धुजनोंको, अनाथों और वन्दी लोगोंको दान देकर तीन प्रकार के बाजोंके साथ ध्वजा आदि फहराकर पुत्रका जन्म महोत्सव मनाया ||४०|| वह बालक समस्त जनताके आनन्दको बढ़ाता हुआ, अतिशय सुन्दर रूपसे, योग्य दुग्ध-पान, अन्नाहार आदि वस्तुओंसे, कीर्ति, कान्ति और शरीरके भूषणोंसे द्वितीयाके चन्द्रमा समान वृद्धिको प्राप्त होकर दिक्कुमार या देवकुमारके समान अत्यन्त शोभाको
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