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प्रधान सम्पादकीय
भगवान् महावीरके पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव वर्षके उपलक्ष्यमें भारतीय ज्ञानपीठके संचालकमण्डल तथा परामर्शदात्री समितिने यह निर्णय लिया था कि प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंशमें पाये जानेवाले भगवान् महावीरके चरितोंका प्रकाशन किया जाये। तदनुसार अपभ्रंश भाषाके कवि पुष्पदन्तके महापुराणसे संकलित 'वीरजिणिदचरिउ' डॉ. हीरालाल जैनके द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशमें आ चुका है।
उसके पश्चात् आचार्य सकलकीतिके द्वारा संस्कृतमें निबद्ध श्री वीरवर्द्धमान चरित पं. हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्रीके द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशमें आ रहा है।
भगवान महावीर जैन धर्मके अन्तिम तीर्थकर थे। वह एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। प्राचीन बौद्ध त्रिपिटकोंमें 'निगंठ नातपुत्त' के नामसे उनका उल्लेख मिलता है। तथा उनके अनुयायी निर्ग्रन्थोंका भी उल्लेख बहुतायतसे मिलता है । डॉ. हर्मन् याकोबीने जैन सूत्रोंकी प्रस्तावनामें कहा है-"इस बातसे अब सब सहमत हैं कि नातपुत्त, जो महावीर अथवा वर्धमानके नामसे प्रसिद्ध हैं, बुद्धके समकालीन थे। बौद्ध ग्रन्थोंमें मिलनेवाले उल्लेख हमारे इस विचारको दृढ़ करते हैं कि नातपुत्तके पहले भी निम्रन्थोंका, जो आज जैन अथवा आईतके नामसे अधिक प्रसिद्ध हैं, अस्तित्व था। जब बौद्ध धर्म उत्पन्न हुआ तब निर्ग्रन्थोंका सम्प्रदाय एक बड़े सम्प्रदायके रूपमें गिना जाता होगा। बौद्ध पिटकोंमें कुछ निग्रन्थोंका बुद्ध और उसके शिष्योंके विरोधीके रूपमें और कुछका बुद्धके अनुयायी बन जानेके रूपमें वर्णन आता है। उसके ऊपरसे हम उक्त बातका अनुमान करते हैं।"
जैन आगमोंमें यह भी उल्लेख मिलता है कि भगवान् महावीरके माता-पिता पार्श्वनाथके अनुयायी थे । दिगम्बर परम्परामें उनका कोई चरित प्राकृत भाषामें निबद्ध प्राप्त नहीं हुआ । किन्तु आचार्य वीरसेनने जय
थाएँ उद्धृत की हैं जिनमें उनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण तथा प्रथम धर्मदेशनाका चित्रण है। वे गाथाएँ कितनी प्राचीन हैं और कहाँसे संकलित की गयी है यह ज्ञात नहीं हो सका। उसके पश्चात जिनसेनके हरिवंशपुराण ( ७८३ ई० ) के प्रारम्भमें उनका संक्षिप्त चरित वणित है। प्रथम विस्तीर्णचरित गणभद्रके उत्तरपराणके अन्तिम परिच्छेदोंमें मिलता है उसमें उनके पूर्व भवोंका भी वर्णन है । महाकवि असगने वि. सं. ९१० में स्वतन्त्र रूपसे महावीरचरित संस्कृतमें रचा। इसमें अठारह सर्ग है किन्तु प्रारम्भके सोलह सोमें महावीरके पूर्व भवोंका चित्रण है और अन्तके दो सर्गोमें उनका चरित वर्णित है । आचार्य सकलकीतिके वीरवर्द्धमानचरितमें १९ अधिकार हैं और प्रारम्भके छह अधिकारोंमें पूर्वभवोंका चित्रण है। शेष तेरह अधिकारों में जीवनचरित है किन्तु अन्य चरितोंसे इसमें कुछ विशेष कथन नहीं है। जिन घटनाओंका चित्रण असग कविने दो स!में किया है उन्हींका इस चरित ग्रन्थमें १३ अधिकारोंमें वर्णन है।
हमें यदि किंचित् विशेषता प्रलोत हुई तो हरिवंशपुराणके कथनमें प्रतीत हुई। उसके अन्तिम छियासठवें सर्गके प्रारम्भमें गौतम गणधर श्रेणिकसे कहते हैं "जरत्कुमार, जिसके बाणसे कृष्णकी मृत्यु हुई थी, की पटरानी कलिंगराजाकी पुत्री थी। उसीकी वंश परम्परामें जितशत्रु हुआ । हे श्रेणिक ! क्या तुम इस जितशत्रुको नहीं जानते जिसके साथ भगवान् महावीरके पिता राजा सिद्धार्थकी छोटी बहनका विवाह हुआ था। जब भगवान् महावीरका जन्मोत्सव हो रहा था तब यह कुण्डपुर आया था। इसकी यशोदया रानीसे उत्पन्न यशोदा नामकी पुत्री थी। उसके साथ भगवान् महावीरके विवाहको यह उत्कट कामना रखता था किन्तु भगवान महावीर विरक्त होकर वनको चले गये, तब वह स्वयं भी विरक्त होकर पृथिवी छोड़ तपमें लीन हो गया।"
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