________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
३६
श्री वीरवर्धमानचरिते
मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः कायगुप्तिर्बुधैरिमैः । त्रयोदशप्रकारैः स साध्यते रागदूरगैः ||९१|| तथा मूलगुणैः सर्वैः क्षमादिदशलक्षणैः । अते परमो धर्मो जितमोहाक्षतस्करैः ॥ १२॥ धीमंस्त्वयाप्यनुष्ठेयो धर्मोऽयं यतिगोचरः । बाल्येऽपि भोः प्रहत्याशु स्मराधारींस्तपोऽसिना ॥ ५३ ॥ धर्मं विधेहि चित्ते स्वं धर्मणालंकुरु स्वयम् । धर्माय त्यज गेहादीन् धर्मान्नान्यं स्वसावर ||१४| धर्मस्य शरणं याहि तिष्ठ धर्मे निरन्तरम् । तं कृत्वा सर्वथा धर्म पाहि मामिति चाय ||१५|| किमत्र बहुनोक्तेन हत्वा मोहमहामटम् । सर्वयत्नेन सद्धर्मं मुक्तये स्वीकुरु द्रुतम् ॥९६॥ इति तद्वाक्यमाकर्ण्य तथ्यं सद्धर्मसूचकम् । आसाद्याङ्गमवस्यादौ निर्वदमिति चिन्तयन् ॥ ९६ ॥ अहो परहितार्थेष वक्ति मे हितकारणम् । अतोऽहं त्वरितं सारं तपो गृह्णामि मुक्तये ॥९८॥ यतो न ज्ञायते नृणां कदा मृत्युर्भविष्यति । गर्भस्थानद्यजातान् वा मारयेदन्तकोऽर्भकान् ॥ ९९ ॥ अहमिन्द्र सुरेशादीन् कालेन पातथेद् यमः । यदि तर्ह्यस्मदादानां काश्राशा जीवितादिषु ॥१००॥ कार्यो धर्मो वृद्धत्वे मत्वेति तं न कुर्वते । ये शठास्ते क्षणाद यान्ति यमस्य ग्रासतामघात् ॥ १०३॥ अतो विचक्षणैः कार्यः सर्वावस्थासु सोऽनिशम् । आशङ्क्य मरणं स्वस्य न कार्यं काललङ्घनम् ॥१०२॥ विचिन्त्येति हृदा धीमांस्त्यक्त्वा बाह्याभ्यन्तरोपधीन् । पिशाचीमिव तां कान्तां चाराध्य यतिसत्कमौ ॥ मनोवाक्कायसंशुद्ध्या प्रव्रज्य त्रिजगन्नुताम्। जग्राह मुक्तये सारां स्वर्मुक्तिसुखमातरम् ॥ १०४॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
[ ४.९१
धर्म अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्यागरूप है, ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान, निक्षेपण और उत्सर्गसमितिरूप है, तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिस्वरूप है । ज्ञानी जन रागसे दूर रहते हुए इन तेरह प्रकारोंसे उस धर्मकी साधना करते हैं । तथा सर्व मूलगुणों से क्षमादिदश लक्षणोंसे मोह और इन्द्रिय- चोरोंको जीतकर वह परम धर्म अर्जित किया जाता है ॥९० ९२ || धीमन, तुम्हें इस मुनि -विषयक धर्मका अनुष्ठान करना चाहिए । हे भव्य, बाल्यकाल होनेपर भी तुम काम आदि शत्रुओंको तपरूपी खड्गसे शीघ्र नाश कर अपने चित्तमें उक्त धर्मको धारण करो और अपनेको धर्मसे अलंकृत करो । धर्मके लिए तुम घर आदिको छोड़ो, धर्मके सिवाय तुम अन्य कुछ भी आचरण मत करो, धर्मकी शरण जाओ, धर्म में ही निरन्तर संलग्न रहो और यह करके सदा यही प्रार्थना करो कि हे धर्म, तू मेरी रक्षा कर ||९३-९५॥ इस विषय में अधिक कहने से क्या है, तू मोह महाभट को मारकर सर्व प्रयत्नसे मुक्ति प्राप्ति के लिए शीघ्र उत्तम धर्मको स्वीकार कर ||१६||
इस प्रकार उन मुनिराज के तथ्यपूर्ण, सद्धर्मसूचक वाक्य सुनकर संसार, शरीर और स्त्री आदि में वैराग्यको प्राप्त होकर वह इस प्रकार सोचने लगा- अहो, पर हितके इच्छुक ये मुनिराज, मेरे हितके कारणभूत इन वचनोंको कह रहे हैं, अतः मैं मुक्ति के लिए शीघ्र ही सारभूत तपको ग्रहण करता हूँ ।। ९७-९८ ।। क्योंकि यह ज्ञात नहीं होता है कि मनुष्योंकी कब मृत्यु होगी ? यह यमराज गर्भस्थोंको और आज ही उत्पन्न हुए बच्चोंको मार डालता है ||१९|| जब यह यम अहमिन्द्र और देवेन्द्र आदिको भी कालसे - समय आने पर - मार गिराता है, तब हमारे जैसे दीन पुरुषों की तो इस जीवन आदिमें क्या आशा की जा सकती है || १०० || 'हम धर्म बुढ़ापा आनेपर करेंगे ।' ऐसा मानकर जो शठ पुरुष यथासमय धर्म नहीं करते हैं, वे पापोदयसे क्षणभर में यमके ग्रासपने को प्राप्त होते हैं || १०१ || इसलिए चतुरजनों को अपने मरणकी प्रतिसमय आशंका करके सभी अवस्थाओं में निरन्तर धर्म करना चाहिए और कालका उल्लंघन नहीं करना चाहिए। अर्थात् धर्म सेवनमें प्रमाद नहीं करना चाहिए || १०२ || ऐसा हृदयमें विचारकर और अपनी कान्ताको पिशाची समझकर उस बुद्धिमान् कनकोज्ज्वल विद्यावरने बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहको छोड़कर एवं साधुके चरणोंकी आराधना कर मन, वचन, कायकी शुद्धिपूर्वक तीन लोकसे पूजनीय स्वर्ग