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चतुर्थोऽधिकारः संन्यासेन समं चेदं गृहाण त्वं वृषाप्तये । त्यक्त्वा मांसाङ्गिघातादीन् स्वर्मुक्त्यादिसुखावहम् ॥४६॥ उत्कृष्टश्रावकाणां सद्वतैः सर्वैर्जगद्धितः । त्यक्तदोषैः सहातीव शुद्धिदैः श्रीजिनोदितैः ॥४७॥ अद्य प्रभृति तेनास्ति संसारश्रमणाद् भयम् । रुचिं विधेहि सन्मार्गे दुमागे विरमाञ्जसा ॥४८॥ इत्थं योगिमुखेन्दूद्भवं सद्धर्मसुधारसम् । पीत्वा मिथ्याविषं घोरं वमित्याशु चिरागतम् ॥४९॥ मुहः प्रदक्षिणीकृत्य मुनियुग्मं सुरार्चितम् । प्रणम्य शिरसाधाय श्रद्धानं हृदये परम् ।।५।। तत्त्वार्थश्रीजिनादीनां सम्यक्त्वं सकलैव्रतैः । संन्यासेन समं सिंहः स्वीचक्रे काललब्धितः ॥५॥ निराहारं विना जातु व्रतमस्य न जायते । यतः क्वचिन्मृगारीणामाहारो न पलात्परः ॥५२॥ अतोऽस्य परमं धयं व्रताचरणमूर्जितम् । अथवा काललब्ध्यात्र किं न जायेत दुर्घटम् ।।५।। तदा प्रभृति सिंहोऽभूत् संयमी च प्रशान्तधीः । चित्रस्थ इव शान्ताङ्गः सर्वसावधवर्जितः ॥५४॥ दुःस्थिति संसूनित्यं मनसा भावयन् मुहुः । क्षुत्तषादिभवां सर्वो सहन बाधां वनोद्भवाम् ॥५५॥ धैर्यत्वेन दयां कुर्वन् विश्वसत्त्वेष्वनारतम् । अप्रशस्तं द्विधा ध्यानं हत्वा स्वैकाग्रचेतसा ॥५६॥ धर्मध्यानदगादीनि चिन्तयन् सोऽवहानये । निश्चलानं विधायोच्चैः संयमीव स्थिरोऽभवत् ॥५७॥ यावजीवं प्रपाल्योचैरित्थं व्रतकदम्बकम् । संन्याससहितं प्रान्ते त्यक्त्वा प्राणान् समाधिना ॥५॥ ग्रतादिजफलेनाभूत्कल्पे सौधर्मनामनि । सिंहो महर्द्धिकः सिंहकेतुनामामरो महान् ।।५।। संपूर्ण वपुरासाय नवयौवनमण्डितम् । उपपादशिलागम घटिकाद्वयमध्यतः ॥६०॥ . विज्ञायावधियोधेन प्राग्भवं व्रतजं फलम् । प्रशस्वधर्ममाहात्म्यं मोऽधाहमें मतिं दृढाम् ॥६१॥
इसलिए तू धर्मकी प्राप्तिके लिए मांस भक्षण एवं प्राणिघात आदिको छोड़कर स्वर्ग-मुक्ति आदिके सुख देनेवाले इस सम्यग्दर्शनको तथा श्री जिनदेव-कथित, जगत्-हितकारी अतीव शुद्धि-प्रदाता सभी निर्दोष सव्रतोंको संन्यासके साथ ग्रहण कर ॥४६-४७|| यदि तुझे संसारके परिभ्रमणसे दुःख है, तो आजसे ही सन्मार्गमें रुचिको धारण कर और दुर्गिसे शीघ्र विराम ले ॥४८॥
इस प्रकार योगिराजके मुखचन्द्रसे प्रकट हुए उत्तम धर्मरूपी अमृत रसको पीकर और चिरकालसे आये हुए घोर मिथ्यात्वको शीघ्र वमन कर, देव-पूजित मुनि-युगलकी बार-बार प्रदक्षिणा और मस्तकसे नमस्कार करके काललब्धिके बलसे उस सिंहने श्रायकके सर्वव्रतोंके
और संन्यासके साथ तत्त्वार्थका एवं देव-शास्त्र गुरुका परम श्रद्वान हृदयमें धारण करके सम्यग्दर्शनको स्वीकार किया ॥४९-५१।। निराहार रहने के विना सिंहके व्रत कभी सम्भव नहीं है, क्योंकि मृगारि-सिंहोंका मांसके सिवाय कहीं भी और कोई दूसरा आहार नहीं है ॥५२।। अतः उस सिंहका यह परम धैर्य है कि उसने इस प्रकारका उत्तम व्रतका आचरण करना स्वीकार किया। अथवा काललब्धिसे इस संसारमें क्या दुर्घट वात सुघट नहीं हो जाती है ॥५३॥ इसके पश्चात् वह संयमी सिंह एकदम शान्त बुद्धिवाला हो गया। वह चित्रमें लिखित सिंहके समान शान्त शरीर और सर्व सावद्यसे रहित होकर संसारकी खोटी स्थितिका मनसे नित्य बार बार भावना करता हुआ, भूख-प्यास आदिसे उत्पन्न तथा वन-जनित सभी बाधाओंका धैय के साथ सहन करता हुआ, सर्व प्राणियोंपर निरन्तर दया धारण करता हुआ, आत-रौद्र इन दोनों प्रकारके अप्रशस्त ध्यानोंको दूर कर अपने एकाग्रचित्तसे पापोंकी हानिके लिए धर्मध्यान और सम्यग्दर्शनादिका चिन्तवन करता हुआ निश्चल अंग करके उच्च संयमी मुनिके समान स्थिर हो गया ॥५४-५७॥ यावज्जीवन इस प्रकार उत्कृष्ट रीतिसे सभी व्रत समूहका संन्याससहित पालन कर और अन्त में समाधिके साथ प्राणोंका त्याग कर वह सिंह . व्रतादि पालन करनेसे उत्पन्न हुए पुण्यके फलसे सौधर्म नामक कल्पमें सिंहकेतु नामका महाऋद्धिवाला महान देव हुआ ॥५८-५९।। उपपाद शिलाके भीतर दो घड़ी कालमें ही नवयौवन
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