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४.३०]
चतुर्थोऽधिकारः परस्त्रीसंगपापेन बद्धो नानातिबन्धनैः । कोष्ठनासिकादीनां छेदनैस्वं कदर्थितः ॥१५॥ जीवहिंसोद्भवाघेन सक्ष्मखण्डैस्तिलोपमैः । खण्डितोऽतीवदीनात्मा शूलीमारोपितो भवान् ॥१६॥ इत्यायैर्विविध? रैः कदर्थनादिकोटिभिः । पीडितः शरणं नित्यं प्रार्थयंस्त्वं न चाप्तवान् ॥१७॥ निर्गत्य नरकादायुःक्षये कर्मारिभिर्वृतः । जातः सिंहः पराधीनस्त्वमिहैवातिपापधीः ॥१८॥ क्षुत्पिपासातपातीवशीतवर्षादिभिर्भवान् । बाध्यमानः पुनः कृत्वा क्रूरकर्माशुमाकरम् ॥१९॥ प्राणिहिंसादिना तस्य विपाकेनातिदुःखमाक् । प्रथमां पृथिवीं प्राप्तो विश्वा
। प्रथमां प्रथिवीं प्राप्तो विश्वाशमखनी खलः ॥२०॥ एत्य तस्मादिहोत्पन्नस्त्वमद्यापि समुद्वहन् । क्रूरतां परमां किं ते विस्मृता श्वभ्रवेदना ॥२१॥ अतो दुर्गतिनाशाय त्यक्त्वा क्रौयं त्वमञ्जसा । गृहाणानशनं सारं व्रतपूर्व शुभार्णवम् ॥२२॥ तदुक्तमिति स श्रुत्वा लब्ध्वा जातिस्मृति तदा । घोरसंसारदुःखौवभयात्सर्वाङ्गकम्पितः ॥२३॥ गलद्वाष्पजलोऽतीवशान्तचित्तोऽभवत्तराम् । अश्रुपातं शुचा कुर्वन् पश्चात्तापभवेन च ॥२४॥ पुनर्मनिहरिं वीक्ष्य स्वस्मिन् बद्धनिरीक्षणम् । शान्तान्तरङ्गमभ्येत्य कृपयैवमभाषत ॥२५॥ पुरा पुरूरवा मिल्लो भूत्वा त्वं धर्मलेशतः । सौधर्मे निर्जरो जातस्तस्मानच्युत्वा शुभोदयात् ॥२६॥ अभूमरीचिनामेह भरतेशसुतो महान् । वृषभस्य स्वामिना साधं कृतदीक्षापरिग्रहः ॥२७॥ परीषहभयात्यक्त्वा सन्मार्ग पापपाकतः । गृहीत्वा दुर्गतेहे तुं वेषं पाखण्डिनां भवान् ॥२८॥ सन्मार्गदूषणं कृत्वा कुमार्गमभिवर्धयन् । पितामहस्य सद्वाक्यमनादृत्यादिदुष्टधीः ॥२९॥
तन्मिथ्योद्भवपापेन जन्ममृत्यादिपीडितः । भवारण्ये भ्रमन् प्राप्तो दुःखं दुःकर्मसंभवम् ॥३०॥ उन नारकियोंने अति सन्तप्त लोहेकी पुतलियोंसे बलात् बार-बार आलिंगन कराया, और तपे हुए लोहेके पिण्डोंसे मार-मारकर तेरा चूर्ण कर दिया। उस भवमें की गयी जीव-हिंसाके पापसे उन नारकियोंने नाना प्रकारके बन्धनोंसे बाँधकर, कान, ओठ और नाक आदि अंगों को छेदन कर और शस्त्रोंसे तिल-तिल समान सूक्ष्म खण्ड कर-करके तुझे खूब दुःख दिये हैं
और अतिदीन बने हुए तुझे शूलीपर चढ़ाया है ॥१४-१६।। इनको आदि लेकर नाना प्रकारकी घोर कोटि-कोटि यातनाओंसे तुझे नित्य खूब पीड़ित किया है और तेरे प्रार्थना करनेपर भी तुझे किसी ने शरण नहीं दी ॥१७॥ आयुके क्षय होनेपर नरकसे निकलकर कर्म वैरियोंसे घिरा पराधीन हुआ तू यहाँ पर सिंह हुआ। तब भी तुझ पापबुद्धिने जीवोंकी हिंसा कर-करके महापापोंका उपार्जन किया, तथा भख-प्यास, गर्मी-सर्दी और वर्षा आदिके महादुःखोंसे पीड़ित हो अति दुःख भोगता हुआ वहाँपर उपार्जित पाप कर्मके विपाकसे दुष्ट तू समस्त दुःखोंकी खानिरूप प्रथम पृथ्वीको प्राप्त हुआ ॥१८-२०॥ वहाँ से निकलकर तू पुनः यहाँपर सिंह हुआ है और आज भी परम क्रूरताको धारण कर इस दीन हरिणको खा रहा है ? क्या तुझे नरककी वे सब वेदनाएँ विस्मृत हो गयी हैं ॥२१॥ अतः अब तू शीघ्र ही दुर्गतिके नाशके लिए क्रूरताको छोड़कर व्रतपूर्वक पुण्यके सागरस्वरूप अनशनको ग्रहण कर ॥२२॥ मुनिराजके इस प्रकारके वचन सुनकर और जातिस्मरण ज्ञानको प्राप्त कर उसी समय घोर संसाबके दुःख-समुदायके भयसे सर्वांगमें कम्पित होकर आँखोंसे आँसुओंको बहाता हुआ वह सिंह अत्यन्त शान्तचित्त हो गया। पश्चात्तापसे उत्पन्न हुए शोकसे अश्रुपात करते हुए और अपनी
ओर एकटक दृष्टि से देखते हुए उस सिंहको देखकर और उसे अन्तरंगमें शान्तचित्त हुआ जानकर मुनिने दयासे प्रेरित होकर इस प्रकार कहा ॥२३-२५॥
हे मृगराज, आजसे कितने ही भव पूर्व तू पुरूरवा भील था । वहाँ धर्मका लेश पाकर उसके फलसे सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ। वहाँसे च्युत होकर पुण्यके उदयसे तू भरतनरेशका महान पुत्र मरीचि हुआ। तब तूने यहाँपर ऋषभदेव स्वामीके साथ दीक्षा धारण कर ली ॥२६-२७॥ पुनः परीषहोंके भयसे सन्मार्गको छोड़कर पापके उदयसे दुर्गतिके कारणभूत
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