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३.४१]
तृतीयोऽधिकारः
अहो पश्य पितृव्योऽयं मां प्रहित्य रिपून् प्रति । कौटिल्यमीदृशं चक्रे स्नेहराज्याङ्गनाशकृत् ॥२८॥ अथवा मोहिनां तत्कि यदकृत्यं जगत्त्रये । यतः कुर्वन्ति मोहान्धा कर्मात्रामुत्र नाशदम् ॥२९॥ वितक्यति प्रसाध्यारीन् हन्तुं स्ववनहारिणम् । शीघ्रं रुषात्कुमारोऽतिबली स्ववनमाययों ॥३०॥ तद्भयात्सोऽतिभोतारमा सुकपित्थमहील्हम् । स्फीतं वृत्त्या समावेष्टय तन्मध्यभागमाश्रितः ॥३१॥ महीरुहं तमुन्मूल्य कुमारोऽद्धतविक्रमः । तेन हन्तं निजं शत्रमधावत्तद्यादः ॥३२॥ ततोऽसावसृत्याशु शिलास्तम्भस्य कातरः । अन्तर्धानं गतः काहो जयोऽत्रान्यायकारिणाम् ॥३३॥ बली मुष्टिप्रहारेण स्तम्भमाहत्य तत्क्षणम् । शतखण्ड व्यधाद् भोः किमशक्यं सबलात्मनाम् ॥३४॥ तस्मात्पलायमानं तं दीनास्यं स्वापकारिणम् । निरीक्ष्य करुणाकान्तमना भत्वेति सोऽस्मरत् ॥३५॥ अहो धिगस्तु मोहोऽयं यदर्थ कातराङ्गिन्नाम् । बन्धूनां क्रियते दण्डो वधबन्धादिगोचरः ॥३६॥ भुक्तर्विविधैर्भोगैर्दुःखदुःखहेतुभिः । एति तृप्तिं न जात्वात्मा तैः किं साध्यं खलैः सताम् ॥३७॥ स्वस्थ्यङ्गमथनोद्भता ये भोगा माननाशिनः । विश्वाशर्माकरीमतान् किं तानिच्छन्ति मानिनः ॥३८॥ विचिन्त्येति समाहूय तस्मै दत्वाशु तद्वनम् । त्यक्त्वा राज्यश्रियं सोऽगारसंभूतगुरुसंनिधिम् ॥३९॥ मुर्ना नस्वा यतोन्द्राही हित्वा सर्वपरिग्रहान् । सर्वत्राप्तसुसंवेगो विश्वनन्दी तपोऽग्रहीत् ॥४०॥ अपकारोऽप्यहो कोके क्वचिनीचैः कृतो महान् । जायते प्रोपकाराय सतां शस्त्रात्तवैद्यवत् ॥११॥
के प्रति भेजकर स्नेह, राज्य और शरीरकी नाश करनेवाली ऐसी कुटिलता मेरे साथ की है ॥२७-२८|| अथवा मोही जनोंके लिए तीन लोकमें ऐसा कौनसा अकृत्य है जिसे वे न करें। मोहान्ध होकर मनुष्य इस लोक और परलोकमें विनाशकारी कर्मको करता है ।।२९।। ऐसा विचार कर और शत्रुओंको जीतकर अपने वनका अपहरण करनेवालेको मारनेके लिए वह अतिबली विश्वनन्दी कुमार रोषसे शीघ्र ही अपने वनमें आया ॥३०|| उसके भयसे डरकर वह विशाखनन्द एक विशाल कपित्थ (कैंथ ) के वृक्षको काँटोंकी वारीसे घेरकर उसके मध्य भागमें जाकर अवस्थित हो गया ॥३१॥ तब अद्भुत पराक्रमी उस विश्वनन्दी कुमारने उस वृक्षको जड़मूलसे उखाड़कर उससे अपने शत्रुको मारनेके लिए उसे भयभीत करता हुआ उसके पीछे दौड़ा ॥३२॥ तब वह कायर विशाखनन्द शीघ्र वहाँसे भागकर एक शिलास्तम्भकी आडमें जाकर छिप गया । अहो, इस संसारमें अन्यायकारियोंकी जीत कहाँ सम्भव है ॥३३॥ तब उस बली विश्वनन्दीने अपने मुष्टि-प्रहारसे उस स्तम्भको तत्क्षण शतखण्ड कर दिया। अरे, बलवान् आत्माओंके लिए क्या अशक्य है ।।३४|| तब वहाँसे भागते हुए दीनमुख अपने अपकारीको देखकर और करुणा-पूरित चित्त होकर वह विश्वनन्दी इस प्रकारसे विचारने लगा-अहो, इस मोहको धिक्कार हो, जिससे प्रेरित होकर यह जीव कायरताको प्राप्त अपने ही बन्धुओंको वध-बन्धनादिरूप दण्ड देता है ॥३५-३६।। दुःखोंसे उत्पन्न होनेवाले और आगामी भवमै दुःखोंके कारणभूत इन भोगे गये नाना प्रकारके भोगोंसे यह आत्मा कभी भी तृप्तिको नहीं प्राप्त होता है। अतः ऐसे इन दुष्ट भोगोंसे सन्त जनोंका क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ॥३७॥ स्त्रीके शरीर-मन्थनसे उत्पन्न हुए ये भोग मनस्वीजनोंके मानका नाश करनेवाले हैं और संसारके समस्त दुःखोंके निधानभूत हैं, इनकी क्या मानी जन इच्छा करते हैं ॥३८॥ ऐसा विचार कर और उसे बुलाकर वह उद्यान उसे ही देकर और सब राज्यलक्ष्मी छोड़कर वह शीघ्र ही सम्भूतगुरुके समीप गया और मुनिराजके चरणोंको मस्तकसे नमस्कार कर तथा सर्व परिग्रहोंको छोडकर एवं देह. भोग, संसार आदि सभीमें वैराग्यको प्राप्त होकर विश्वनन्दीने तपको ग्रहण कर लिया ॥३९-४०॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि अहो, लोकमें नीच पुरुषोंके द्वारा किया गया महान् अपकार भी कभी सज्जनोंके भारी उपकारके लिए हो जाता है । जैसे कि वैद्यके द्वारा शस्त्रचिकित्सासे रोगीका उपकार होता है ।।४।।
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