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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ १.६८
अमीषां वचसां दक्षा धर्मं गृह्णन्ति वा तपः । तदाचरणसुप्रमाण्यान्नान्य शिथिलात्मनाम् ||६८ || यद्ययं वेत्ति सद्धर्मं कथं नाचरति स्वयम् । इत्युक्त्वा शिथिलोक्तं न धर्म स्वीकुरुते जनः ॥ ६९ ॥ ज्ञानहीनो वदत्यत्र यो धर्मं चिल्लवोद्धतः । मोः किं वेत्ययमित्युक्त्वोपहसति तमेव हि ॥७०॥ अतोऽन्न शास्त्रकर्तॄणां वक्तृणां धर्मदेशिनाम् । द्वौ गुणौ परमो ज्ञेयौ ज्ञानवृत्तात्मकौ भुवि ॥ ७१ ॥ दृश्चिच्छीलवतोपेताः सिद्धान्तश्रवणोत्सुकाः । श्रुतावधारणे शक्ता जिनेन्द्रसमये रताः ॥७२॥ अर्हद् भक्ताः सदाचारा निर्मन्थगुरुसेवकाः । विचारचतुरा दक्षाः निकषप्राव संनिभाः ॥७३॥ आचार्योक्तं श्रुतं सम्यक् सारासारं विचार्य ये । असारं प्राग्गृहीतं वा त्यक्त्वा गृह्णन्ति सूनृतम् ॥७४॥ हसन्ति स्खलितं सुरेर्न मनाग् ये विवेकिनः । शुकमृद्धं सनीरादिगुणाढ्या दोषदूरगाः ॥ ७५ ॥ इत्याद्यपरसच्छ्रोतृगुणैर्युक्ता विदोऽत्र ये । श्रोतारः परमा ज्ञेयास्ते शास्त्राणां शुभाशयाः ॥ ७६ ॥ यस्यां सम्यग् निरूप्यन्ते जीवतत्त्वादयोऽखिलाः । तत्त्वार्था मुख्यसंवेगा मवभोगाङ्गधामसु || ७७ || दान-पूजा तपः- बाल - प्रतादीनां फलानि च । बन्धमोक्षादयो व्यक्तास्तेषां च हेतवो घनाः ॥ ७८ ॥ मुख्या प्राणिदया यत्र प्रोच्यते धर्ममातृका । सर्वसंगपरित्यागारस्वर्मोक्षं यान्ति धीधनाः || ७९ ||
हों, ज्ञानियोंके द्वारा मान्य हों, सत्यवचनोंसे अलंकृत हों, तथा इसी प्रकारके अन्य अनेक सारभूत गुणोंसे जो विभूषित हों, ऐसे जो आचार्य हैं, वे ही विद्वानोंके द्वारा महान् उत्तम शास्त्रोंके वक्ता माने गये जानना चाहिए। कारण ऐसे ही वक्ताओंके वचनोंसे दक्ष पुरुष धर्मको और तपको ग्रहण करते हैं क्योंकि उनके आचरणकी प्रमाणतासे वचनोंमें प्रमाणता मानी जाती है । अन्य शिथिलाचारी पुरुषोंके वचन कोई नहीं मानता है । क्योंकि उनके विषयमें लोग ऐसा कहते हैं कि यदि यह सत्य धर्मको जानता है, तो फिर स्वयं उसका आचरण क्यों नहीं करता है। ऐसा कहकर लोग शिथिलाचारीके कहे हुए धर्मको स्वीकार नहीं करते हैं । जो ज्ञानहीन वक्ता यहाँपर ज्ञानका लवमात्र पाकर उद्धत हुआ धर्मका प्रतिपादन करता है, उसके लिए लोग 'अरे, यह क्या जानता है', ऐसा कहकर उसकी हँसी उड़ाते हैं ।। ६३-७० ।। अतएव यहाँपर शास्त्रकर्ताओं और धर्मोपदेश करनेवाले वक्ताओंके ज्ञान और चारित्रात्मक दो परम गुण जानना चाहिए ||७१ ||
श्रोताका लक्षण - जो सम्यग्दर्शन, शील और व्रतसे संयुक्त हों, सिद्धान्तके सुनने के लिए उत्सुक हों, सुनकर उसके अवधारण करनेमें समर्थ हों, जिनदेवके शासन में निरत हों, अर्हन्तदेवके भक्त हों, सदाचारी हों, निर्ग्रन्थ गुरुओंके सेवक हों, विचार करने में चतुर हों, तत्त्वके स्वरूप निर्णय में कसौटीके पाषाणके सदृश चतुर परीक्षक हों, और जो आचार्य के द्वारा कहे गये श्रुतका सम्यक् प्रकार से सार असार विचार करके असारको तथा पहले से ग्रहण किये गये को छोड़कर सारभूत सत्यको ग्रहण करनेवाले हों, और जो विवेकी जन आचार्य स्खलन ( चूक ) पर जरा भी नहीं हँसते हों, जो तोता, मिट्टी और हंसके क्षीर-नीर विवेक समान गुणोंसे युक्त हों और सर्व प्रकार के दोषोंसे दूर हों, इनको आदि लेकर अन्य अनेक उत्तम गुणोंसे युक्त जो ज्ञानी श्रोता होते हैं, वे ही शुभाशयवाले शास्त्रोंके परम श्रोता जानना चाहिए ॥७२-७६ ॥
उत्तम कथाका स्वरूप - जिस कथामें जीव आदि समस्त तत्त्व सम्यक् प्रकार से निरूपण किये गये हों, जिसमें परमार्थका वर्णन हो, संसार, भोग और शरीर गृहादिमें मुख्य रूपसे संवेग (वैराग्य ) का निरूपण हो, जिसमें दान, पूजा, तप, शील और व्रतादिकोंका स्वरूप तथा उनके फलोंका वर्णन हो, जिसमें बन्ध और मोक्ष आदिका तथा उनके कारणोंका व्यक्त एवं विस्तृत वर्णन हो, जिस कथामें धर्मकी मातास्वरूप प्राणिदया मुख्य रूपसे कही गयी हो, सर्व प्रकार के परिग्रहके परित्यागसे स्वर्ग और मोक्षको जानेवाले बुद्धिमान पुरुष
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