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श्री वीरवर्धमानचरिते
वृषभं वृषचक्राङ्कं वृषतीर्थप्रवर्तकम् । वृषाय वृषदं वन्दे वृषभं वृषभात्मनाम् ॥ ११॥ योऽजितो मोहकामाक्षारातिजालैः परीषहैः । एकाकी मिलितैः सर्वैरजितं तं स्तुवे मुदा ॥ १२ ॥ शंभवं भवहन्तारं त्रिजगद्भव्यदेहिनाम् । कर्तारं विश्वसौख्यानामीडे तद्गतयेऽनिशम् ॥१३॥ चिदानन्दमयं दिव्यवाण्यानन्दकरं सताम् । अभिनन्दनमात्मोत्थानन्दाप्त्यै संस्तुवे सदा ॥ १४ ॥ नमामि सुमतिं देवदेवं सन्मतिदायिनम् । भव्यानां सन्मति मूर्ध्ना स्वच्छसन्मतिसिद्धये ॥ १५ ॥ पद्ममहं नौमि द्विधा पद्माद्यलंकृतम् । तत्पद्माप्त्यै सुजन्तूनां पद्मादं पद्मकान्तिकम् ॥ १६ ॥ नमः सुपार्श्वनाथाय सुधियां पार्श्वदायिने । अनन्तशर्मणेऽनन्त गुणायातीतकर्मणे ॥ १७ ॥ करोति जगदानन्दं यो धर्मामृतबिन्दुभिः । हत्वाज्ञानतमः स्तुत्यः सोऽस्तु मे चित्सुखाये ॥ १८ ॥ सुविधिं विधिहन्तारं मन्यानां विधिदेशिनम् । स्वर्गमुक्तिसुखाद्याप्त्यै मुदेडे विधिहानये ॥ १२ ॥ शीतलं भव्यजीवानां पापातापविनाशिनम् । दिव्यध्वनिसुधा पूरै नम्यघातापविच्छिदे ॥ २०॥ नमोsस्तु श्रेयसे यदायिने त्रिजगत्सताम् । विश्वश्रेयोमयायैव श्रेयसेऽरिजितात्मने ॥२१॥ पूजित त्रिजगन्नाथैर्यो मुदं नैति जातुचित् । निन्दितो न मनाग् द्वेषं वासुपूज्यं तमाश्रये ॥ २२ ॥ अनादिकर्मजल्लादीन् यद्ववो हन्ति योगिनाम् । विमको विमलात्मा स इन्तु मेऽघमलं स्तुतः ॥२३॥
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धर्मचक्र अंकित, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक, वृषभ (बैल) चिह्नवाले और धर्मात्माजनों को धर्मके दातार ऐसे श्री वृषभस्वामीको धर्मकी प्राप्तिके लिए मैं वन्दना करता हूँ ॥ ११ ॥ जो अकेले होनेपर भी मोह, काम और इन्द्रिय आदि शत्रु समुदायसे और अनेकों परीषहोंसे सम्मिलित होनेपर भी नहीं जीते जा सके, ऐसे श्री अजितनाथकी मैं हर्षसे स्तुति करता हूँ ||१२|| जो तीन जगत् के भव्य जीवोंके संसारके हरण करनेवाले हैं और सर्व सुखों के करने - वाले हैं, ऐसे सम्भवनाथकी मैं उन जैसी गतिकी प्राप्ति के लिए निरन्तर पूजा करता हूँ || १३|| जो ज्ञानानन्दमय हैं, अपनी दिव्य वाणीसे सज्जनोंको आनन्द करनेवाले हैं, ऐसे अभिनन्दन प्रभुकी मैं आत्मोत्पन्न आनन्दकी प्राप्ति के लिए सदा स्तुति करता हूँ ||१४|| जो भव्य जीवोंको सन्मतिके देनेवाले हैं और देवोंके भी देव हैं, ऐसे सुमति देवको मैं निर्मल सन्मति की सिद्धिके लिए मस्तक से नमस्कार करता हूँ || १५ || जो अनन्तचतुष्ट्यरूप अन्तरंगलक्ष्मी और प्रातिहार्यादिरूप बहिरंगलक्ष्मी से अलंकृत हैं, जगत्के प्राणियोंको सर्व प्रकारकी लक्ष्मीके देनेवाले हैं और पद्म समान कान्तिके धारक हैं, ऐसे पद्मप्रभ स्वामीको मैं उनकी लक्ष्मीके पानेके लिए नमस्कार करता हूँ ||१६|| जो सुबुद्धिके धारकजनोंको अपना सामीप्य देनेवाले हैं, सर्वकर्म रहित हैं, अनन्त सुखी और अनन्त गुणशाली हैं, ऐसे सुपार्श्वनाथके लिए नमस्कार है ||१७|| जो धर्मरूप अमृत-बिन्दुओंसे जगत्को आनन्दित करते हैं और अपनी ज्ञान-किरणोंसे जगत्के अज्ञानान्धकारको दूर करते हैं, ऐसे चन्द्रप्रभ स्वामीका मैं आत्मिक सुखकी प्राप्तिके लिए स्तवन करता हूँ || १८ || जो कर्मों के हन्ता हैं और भव्य जीवोंको मोक्षमार्गकी विधिके उपदेष्टा हैं, ऐसे सुविधिनाथ की मैं स्वर्ग-मुक्ति के सुख आदिकी प्राप्तिके लिए तथा कर्मों के विनाशके लिए सहर्ष पूजा करता हूँ ||१९|| जो अपनी दिव्यध्वनिरूप अमृतपूरके द्वारा भव्य जीवोंके पाप- आतापके विनाशक हैं, ऐसे शीतलनाथको मैं अपने पाप - सन्तापके दूर करनेके लिए नमस्कार करता हूँ ||२०|| जो तीन जगत्के सज्जनवृन्दको कल्याणके दाता हैं, कर्म-शत्रुओंके विजेता हैं और समस्त श्रेयोंसे संयुक्त हैं, ऐसे श्रेयान्स जिनको मेरा श्रेयःप्राप्तिके लिए नमस्कार हो ||२१|| जो तीन जगत्के नाथ इन्द्रादिकोंके द्वारा पूजित होनेपर भी कभी हर्षित नहीं होते और निन्दा किये जानेपर भी कभी जरा-सा भी द्वेष मनमें नहीं लाते हैं ऐसे वासुपूज्य स्वामीका मैं आश्रय लेता हूँ ||२२|| जिनके निर्मल वचन योगियों के अनादिकालीन कर्म-मलका नाश करते हैं वे निर्मलात्मा १. अ वर्षणैर्नौम्य घातपच्छिदे ।