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१९.२५४]
एकोनविंशोऽधिकारः इति सुचरणयोगाच्छर्मसारं महयो नृसुरगतिषु भुक्त्वा तीर्थनाथोऽभूत्वा । नृखगसुरपतीड्यः कृत्स्नकर्माणि हत्वागमदनु शिवसौधं संस्तुवे वीरनाथम् ॥२५॥ वीरो वीरजनार्चितो गुणनिधिरिं सुवीराः श्रिता
वीरेणेह किलाप्यते शिवसुखं वीराय नित्यं नमः । वीरानास्त्यपरः क्षमोऽघविजये वीरस्य वीय परं
वीरे चित्तमहं दधे रिपुजये मां वीर वीरं कुरु ॥२५॥
अन्तिम मंगल-कामना वीरो योऽत्र मया चरित्ररचनाव्याजेन मूर्धा नतो
भक्त्या तद्गुणभाषणैर्निजगिरा शक्त्या स्तुत: पूजितः । भावेनैव मुहुर्मुहुः स जिनपो दद्याच्च मे लोभिनः
सामग्री सकलां विमुक्तिजननी शीघ्र निरस्नोद्भवाम् ॥२५॥ यो बाल्येऽपि सुसंयमंत्रिमणि जग्राह मुक्त्याप्तये
यं तं मे स ददातु मुक्तिजनके चेहाप्यमुत्र स्फुटम् । यः सद्ध्यानमहासिनाखिलरिपून शीघ्र जघानोर्जितान्
मेऽसौ कर्मरिपून खचौरसहितान् हन्याद् द्रुतं मुक्तये ॥२५३।। येनाप्तास्त्रिजगत्स्तुता वरगुणा सीमातिगा निर्मला:
कैवल्यप्रमुखाः स तानिजगुणान् सर्वान् प्रदद्यान्मम । तस्मायेन शिवात्मजा त्रिविधिना वीरेण भोः स्वीकृता
क्षिप्रं मे स तनोतु मुक्किममलां चान्तातिगां शर्मणे ॥२५॥
इस प्रकार उत्तम चारित्रके योगसे जो देव और मनुष्यगतिमें सारभूत महासुखको भोगकर और तीर्थके नाथ होकर, नरपति; खगपति और सुरपतियोंसे पूजित हो और तत्पश्चात् सर्व कर्मोका नाश कर शिव-सदनको प्राप्त हुए, उन वीरनाथकी मैं सकलकीर्ति स्तुति करता हूँ ॥२५०।। वीरजिन वीरजनोंसे पूजित हैं, गुणनिधि हैं, वीरजिनको वीरजन ही आश्रित होते हैं, वीरके द्वारा ही इस लोकमें शिवसुख प्राप्त किया जाता है, अतः वीरके लिए मेरा नित्य नमस्कार है। वीरसे परे दूसरा कोई भी पापकर्मोको जीतने में समर्थ नहीं है, वीरका वीर्य परम श्रेष्ठ है, मैं वीर जिनमें अपना मन लगाता हूँ, हे वीर, शत्रुको जीतने में मुझे वीर करो ॥२५१॥
अन्तिम मंगल-कामना मैंने चरित्रकी रचनाके बहाने जो वीरप्रभुको मस्तकसे नमस्कार किया है, भक्तिपूर्वक अपनी वाणीके द्वारा शक्तिके अनुसार उनके गुणोंका वर्णन कर उनकी प्रशंसा और स्तुति की है एवं शुभ भावोंसे बार-बार उनकी पूजा की है, ऐसे वे श्रीवीर जिनेन्द्र मुझ लोभीको मुक्तिको प्राप्त करानेवाली और सम्यग्दर्शनादि तीन रत्नोंसे उत्पन्न होनेवाली सकल सामग्रीको शीघ्र देवें ॥२५२॥ जिस वीरप्रभुने बालकाल (कुमारावस्था) में भी मुक्तिको प्राप्तिके लिए रत्नत्रयजनित उत्तम संयमको ग्रहण किया, जिन्होंने उत्तम शुक्लध्यानरूपी महान् खड्गके द्वारा अति प्रचण्ड सर्व कर्मशत्रुओंको विनष्ट किया, वे वीर प्रभु मुझे इस लोक और परलोकमें मुक्ति-दाता संयम और रत्नत्रयको देवें, तथा इन्द्रियरूपी चोरोंके साथ मेरे सब कर्मशत्रुओंका मुक्ति पाने के लिए शीघ्र विनाश करें ॥२५३॥ जिन्होंने तीन लोकसे स्तुति किये गये अनन्त निर्मल केवलज्ञानादि उत्तम गुण प्राप्त किये हैं, वे वीर प्रभु उन सब अपने गुणोंको मुझे
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