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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ १९.२०३
दक्षः सूनुर्महाप्राज्ञोऽजनिष्टस्त्वमिहेदृशः । द्रुतमाप्यसि निर्वाणं तपसा च विधेः क्षयात् ॥ २०३ ॥ इति तत्सत्कथां श्रुत्वा केचिद्वैराग्यवासिताः । आददुः संयमं केचिद् हृदि धर्मं च दर्शनम् ॥ २०४ ॥ ससुतः श्रेणिकस्तस्मात्पीतधर्मश्रुतामृतः । नत्वा च श्रीजिनं भक्त्या गणेशान् स्वपुरं ययौ ॥ २०५ ॥ अथेन्द्रभूतिरेवाद्यो वायुभूत्यग्निभूतिकौ । सुधर्ममौर्य मौण्ड्याख्यपुत्र मैत्रेयसंज्ञकाः ॥ २०६ ॥ अकम्पनोऽन्धवेलाख्यः प्रभासोऽमी सुरार्चिताः । एकादश चतुर्ज्ञानाः सन्मतेः स्युर्गणाधिपाः २०७ ॥ शतत्रयप्रमा ज्ञेया विभोः पूर्वार्थधारकाः । सहस्राणि नवैवाथ तथा नवशतान्यपि ॥ २०८ ॥ इति संख्यान्विताः सन्ति शिक्षकाइचरणोद्यताः । त्रयोदशशतान्येव मुनयोऽवधिभूषिताः ॥ २९९ ॥ केवलज्ञानिनः सप्तशतसंख्याश्च तत्समाः । मुनयो विक्रियदर्घायाः स्युः शतानि नवास्य च ॥ २१०॥ चतुर्थज्ञानिनः पूज्याः शतपञ्चप्रमाः प्रभोः । चतुःशतप्रमाणा भवन्त्यनुत्तरवादिनः ॥ १११ ॥ सर्वे पिण्डीकृताः सन्ति सहस्राणि चतुर्दश । संयताः श्रीवर्धमानस्य रत्न त्रितयभूषिताः ॥ २१२ ॥ आर्यिकाश्चन्दनाद्याः षट् त्रिंशत्सहस्रसंमिताः । नमन्ति तत्पदाब्जौ सत्तपोमूलगुणान्विताः ॥ २१३॥ दृग्ज्ञानसद्व्रतोपेताः श्रावकाः लक्षसंख्यकाः । त्रिलक्षश्राविकाश्चास्याचंयन्त्यङ्घ्रिसरोरुहौ ॥ २१४॥ देवा देव्यस्त्वसंख्याताः सेवन्ते तत्पदाम्बुजौ । दिव्यैः स्तुतिनमस्कारपूजाद्युत्सवकोटिभिः ॥ २१५ ॥ तिर्यञ्चः सिंहसर्पाद्याः शान्तचित्ता व्रत।ङ्किताः । संख्याता भक्तिका वीरं श्रयन्ते भवभोरवः ॥ २१६ ॥ एतैर्द्वादशसंख्यातैर्गणैर्भक्तिभरोत्कटैः । संपरीतो जगन्नाथस्ततो हि विहरन् शनैः ॥ २१७ ॥
ब्राह्मणका जीववाला देव वहाँसे चय कर यहाँ पर श्रेणिक राजाके ऐसे चतुर महाप्राज्ञ अभयकुमार नामके पुत्र हुए हो । और शीघ्र ही तपसे कर्मोंका क्षय करके निर्वाणको प्राप्त होओगे ।।२०२-२०३।। अभयकुमारकी इस पूर्वभवसम्बन्धी उत्तम कथाको सुनकर वैराग्य से परिपूर्ण हुए कितने ही लोगोंने तो संयमको ग्रहण किया और कितने ही मनुष्योंने अपने हृदय में श्रावक धर्म और सम्यग्दर्शनको धारण किया || २०४ || इस प्रकार गौतमस्वामीसे धर्म और श्रुतरूप अमृतको पीकर अभयकुमार पुत्रके साथ श्रेणिक राजा भक्तिपूर्वक श्रीवीरजिनको और गौतम गणधरको नमस्कार कर अपने राजगृह नगरको चला गया ॥ २०५ ॥
अथानन्तर वीर जिनेन्द्रके ग्यारह गणधरोंमें इन्द्रभूति गौतम प्रथम गणधर थे। दूसरे वायुभूति, तीसरे अग्निभूति, चौथे सुधर्मा, पाँचवें मौर्य, छठे मौंड्य, ( मण्डिक) सातवें पुत्र ( ? ), आठवें मैत्रेय, नवें अकम्पन, दशवें अन्धवेल, और ग्यारहवें प्रभास गणधर हुए। ये वीर भगवान् के सभी ग्यारह गणधर देव- पूजित और चार ज्ञानके धारक थे । २०६-२०७|| भगवान् महावीरके समवशरणमें चतुर्दश पूर्वके अर्थको धारण करनेवाले तीन सौ थे। नौ हजार नौ सौ चारित्र आचरण करने में उद्यत शिक्षक मुनि थे, तेरह सौ मुनि अवधिज्ञानसे भूषित थे। उनके ही समान ज्ञानवाले सात सौ केवलज्ञानी थे। नौ सौ मुनि विक्रिया ऋद्धिसे युक्थे । पाँच सौ पूज्य मन:पर्ययज्ञानी थे, चार सौ अनुत्तरवादी थे। इस प्रकार ये सब मिलकर चौदह हजार साधु श्रीवर्धमानस्वामीके शिष्य परिवार में थे और ये सब रत्नत्रय से विभूषित थे || २०८ - २१२ ॥ चन्दन आदिक छत्तीस हजार आर्यिकाएँ थीं। वे सब उत्तम तप और मूलगुणोंसे युक्त थीं और भगवान्के चरण कमलोंको नमस्कार करती थीं ||२१३ || सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और गृहस्थव्रतोंसे संयुक्त एक लाख श्रावक थे और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। ये सभी जिनेन्द्रदेवके चरण-कमलोंको पूजते थे || २१४ || असंख्यात देव और देवियाँ भगवान के पादारविन्दोंकी दिव्य स्तुति, नमस्कार, पूजा और करोड़ों प्रकारके उत्सवोंसे सेवा करते थे || २१५|| सिंह सर्पादि शान्तचित्त, व्रत-युक्त, भक्तिमान् और भवभीरु संख्यात तिर्यंचोंने वीर भगवान्का आश्रय लिया था. ॥ २१६ ॥ भक्तिभारसे व्याप्त इन बारह गणोंसे वेष्टित जगत् के नाथ श्रीवर्धमान तीर्थंकर देव तत्पश्चात् धीरे-धीरे विहार करते, नाना देश-पुर-ग्राम
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