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१९.१७४ ] एकोनविंशोऽधिकारः
२१३ तदनुग्रहधर्माय ततः श्रीगौतमो जगौ। शृणु धीमन् वचस्तथ्यं भवच्छोकापनोदकम् ॥१६१॥ कालशौकरिकोऽत्रव पुरे नीचकुले भृशम् । मवस्थितिवशाद् बद्धमनुष्यायुः कुकर्मणा ॥१६॥ सप्तकृत्वोऽधुना जातिस्मरो भूत्वेत्यचिन्तयत् । पुण्यपापफलेनाहो संबन्धोऽस्त्यङ्गिनां यदि ॥१६ तर्हि पुण्यादते कस्मात्प्राप्तोऽयं नृमवो मया । ततः पापं न पुण्यं वा श्रेयो वैषयिकं सुखम् ॥१६॥ इति मत्वा स पापात्मा भूत्वा निःशङ्क एव च । हिंसादिपञ्चपापानि मांसाद्याहारमञ्जसा ॥१६५॥ करोति तत्फलेनैव बहारम्भपरिग्रहः । बद्ध श्वभ्रायुरन्तेऽघायास्यस्ति श्वभ्रमन्तिमम् ॥१६॥ शुभाख्या द्विजपुत्री च रागान्धा मदविहला । उग्रस्त्रीवेदपाकेन निःशीला निर्विवेकिनी ॥१६॥ गुणशीलसदाचारान् वीक्ष्य श्रस्वातिकोपिनी । अतीवेन्द्रियलाम्पट्यानरकायुर्बबन्ध च ॥१६८॥ रौद्ध्यानेन मृत्वेति ततः सात्र गमिष्यति । सर्वदुःखखनी निन्द्यां पापात्तमःप्रभावनिम् ॥१६॥ इति तद्वचनस्यान्ते प्रणिपत्य गणाधिपम् । अमयाख्यः कुमारः पप्रच्छ स्वस्य मवान्तरम् ॥१७॥ तदनुग्रहबुद्धघासौ प्राह तस्य मवावलीम् । इहैव भरते विप्रतनूजः सुन्दरामिधः ॥१७॥ मूढत्रययुतो भद्रो मिथ्यादृष्टिव्रजन् पथि । वेदाभ्यासाय स जैनाहं हासेन समं कुधीः ॥७२॥ वीक्ष्य पाषाणराशिं च पिप्पलाधःस्थितां पराम् । देवोऽयं मम हीत्युक्त्वानमत्परीत्य तं द्रुम् ॥१३॥ तच्चेष्टां वीक्ष्य तदबोधनाय प्रहस्थ तं तरुम् । पादेन मर्दनं कृत्वाश्वहसो बमा सः ॥१७॥
मेरे विना क्या और कोई पुरुष अधोगति (नरक) को जायेगा, या नहीं ? श्रेणिककी बात सुनकर उसके अनुग्रह करनेके लिए श्रीगौतमने कहा-हे धीमन् , तेरे शोकको दूर करनेवाले मेरे यथार्थ वचन सुनो ॥१६०-१६१॥ इसी राजगृहनगरमें भवस्थितिके वशसे पूर्वभवमें मनुष्यायुको बाँधकर नीचगोत्रके उदयसे अत्यन्त नीच कुलमें उत्पन्न हुआ कालशौकरिक नामका कसाई रहता है । अब उसे सात भव-सम्बन्धी जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ है, अतः वह विचारने लगा है कि यदि पुण्य-पापके फरसे जीवोंका सम्बन्ध होता, तो मैंने पुण्यके बिना यह मनुष्य जन्म कैसे पा लिया? इसलिए न पुण्य है और न पाप है। किन्तु इन्द्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न हुआ वैषयिक सुख ही कल्याण-कारक है ॥१६२-१६४॥ ऐसा मानकर वह पापात्मा निःशंक होकर हिंसादि पाँचों पापोंको और मांसादिके आहारको निश्चयतः करता है । इन पापोंके फलसे तथा बहुत आरम्भ और परिग्रहसे उसने नरकायुको बाँध लिया है । जीवनके अन्त में वह उक्त पापोंके उदयसे अन्तिम (सातवें ) नरकको जायेगा ॥१६५-१६६॥ तथा इसी नगर में शुभानामवाली एक ब्राह्मणपुत्री है, वह रागसे अन्धी और मदसे विह्वल है। तीव्र स्त्रीवेदके उदयसे शील-रहित है, अर्थात् व्यभिचारिणी है, और विवेक-रहित है । वह गुणी, शीलवान् और सदाचारी पुरुषोंको देखकर और सुनकर अत्यन्त कुपित होती है। उसने भी इन्द्रिय विषय-सेवनकी अतीव लम्पटतासे नरकायु बाँध ली है। वह भी जीवनके अन्तमें रौद्रध्यानसे मरकर पापके फलसे निन्द्य और .सर्वदुःखोंकी खानिवाली तमःप्रभा नामकी छठी नरकभूमि जायेगी॥१६७-१६९।। (यह सुनकर राजा श्रेणिक कुछ आश्वस्त हुए।)
जब गौतमस्वामी नरक जानेवाले उक्त दोनोंकी बात कह चुके, तब अभयकुमारने गणधरदेवको नमस्कार करके अपने पूर्वभवोंको पूछा ।।१७०॥ उसके अनुग्रह की बुद्धिसे गौतमस्वामीने उसकी भवावलीको इस प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया-हे भद्र, इस भरत क्षेत्रमें सुन्दरनामका एक ब्राह्मणपुत्र था। वह तीन मूढ़ताओंसे युक्त मिथ्यादृष्टि था। वह कुबुद्धि वेदोंके अभ्यासके लिए एकबार जब अहंदास जैनीके साथ मार्गमें जा रहा था तब किसी स्थान पर पीपल के वृक्षके नीचे रखी हुई पत्थरोंकी राशिको देखकर 'यह मेरा देव है' ऐसा कहकर और उस वृक्षकी तीन प्रदक्षिणा देकर उसने उसे नमस्कार किया ॥१७१-१७३॥ उसकी यह चेष्टा देखकर उसे समझानेके लिए अर्हद्दासने हँसकर और पैरसे उसे मर्दन कर उसे
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