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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ १९.८७
ततोऽभ्यर्च्य जिनेन्द्राङ्ङ्घ्री सोऽष्टभेदैर्महार्चनैः । पुनर्नस्वातिभक्त्येति तरस्तवं कर्तुमुद्ययौ ॥८७॥ अद्य नाथ वयं धन्याः सफलं नोऽय जीवितम् । मर्त्यजन्म च यस्मात्वं प्राप्तोऽस्माभिर्जगद्गुरुः ॥ ८८ ॥ अद्य मे सफले नेत्रे भवत्पादाम्बुजेक्षणात् । सार्थकं च शिरो देव प्रणामात्त्वत्क्रमाब्जयोः ॥८९॥ धन्यौ मम करौ स्वामिन्नद्य ते चरणार्चनात् । यात्रया च क्रमौ वाणी सार्थिका स्तवनेन च ॥ ९०॥ अद्य मेऽभून्मनः पूर्वं स्वद्ध्यानगुणचिन्तनात् । गात्रं शुश्रूषया सर्व दुरितारिनेनाश च ॥९१॥ संसारसागरोऽपारश्चुलुकाभोऽद्य भासते । स्वां पोतसममासाद्य नाथ मे किं मयं ततः ॥ ९२ ॥ इति स्तुत्वा जगन्नाथं मुहुर्नस्था मुदान्वितः । सद्धर्मंश्रावणायासौ नरकोष्ठे पाविशत् ॥९३॥ तत्रासीनो नृपो भक्त्या शुश्राव ध्वनिना गुरोः । धर्मं यतिगृहस्थानां तत्त्वानि सकलानि च ॥१४॥ पुराणानि जिनेशानां पुण्यपापफलानि च । लक्षणानि सुधर्मस्य क्षमादीनि व्रतानि च ॥ ९५ ॥ ततः श्रीगौतमं नत्वा प्राक्षीदिति महीपतिः । भगवन् मद्दयां कृत्वा प्राग्जन्मानि ममादिश ॥ ९६॥ तच्छुखेति गणेशोऽवादीत्तं प्रति परार्थकृत् । शृणु धीमन् प्रत्रक्ष्ये ते वृत्तकं त्रिमवाश्रितम् ||१७|| इह जम्बूमति द्वीपे विन्ध्यादौ कुटवाह्वये । वने खदिरसाराख्यः किरातो भद्रकोऽवसत् ||१८|| सोऽन्यदा वीक्ष्य पुण्येन समाधिगुप्तयोगिनम् । विश्वजन्तु हितोयुक्तं शिरसा प्राणमत्सुधीः ॥ ९९ ॥ 'धर्मलाभोऽस्तु ते मद्र ह्याशीर्वादं स इत्यदात् । तदाकर्ण्य किरातोऽसावित्य पृच्छन्मुनीश्वरम् ॥१००॥ स धर्मः कीदृशो नाथ किं कृत्यं तेन देहिनाम् । किमस्य कारणं कोऽत्र काम एतन्ममादिश || १०१ || तच्छ्रुत्वोवाच योगीति त्यागो यः क्रियते बुधैः । मधुमांससुरादीनां स धर्मों वधदूरगः ॥ १०२॥
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जीवन और मनुष्य जन्म पाना सफल हो गया, क्योंकि हमें आप जैसे जगद्-गुरु प्राप्त हुए हैं ||८८ || आपके चरण-कमलोंके देखनेसे आज हमारे ये दोनों नेत्र सफल हो गये हैं, आपके चरण-कमलोंको प्रणाम करनेसे हे देव, हमारा यह सिर सार्थक हो गया है । हे स्वामिन्, आज आपके चरणोंकी पूजासे मेरे दोनों हाथ धन्य हो गये हैं, आपकी दर्शन-यात्रा से हमारे दोनों पैर कृतकृत्य हो गये हैं और आपके स्तवनसे हमारी वाणी सार्थक हो गयी है ।। ८९-९० ॥ आज मेरा मन आपका ध्यान करने और गुणोंके चिन्तनसे पवित्र हो गया, आपकी सेवाशुश्रूषासे सारा शरीर पवित्र हो गया और हमारे पापरूपी शत्रुका नाश हो गया है ||११|| हे नाथ, आप जैसे जहाजको पा करके यह अपार संसार-सागर चुल्लू-भर जलके समान प्रतिभासित हो रहा है । इसलिए अब हमें क्या भय है ||१२|| इस प्रकार जगत् के नाथ वीर प्रभुकी स्तुति कर, पुनः हर्षसे संयुक्त हो नमस्कार कर उत्तम धर्मको सुननेके लिए मनुष्योंके कोठे में जा बैठा ||१३|| वहाँपर बैठे हुए राजाने भक्तिसे जगद् गुरुकी दिव्यध्वनिके द्वारा मुनि और गृहस्थोंका धर्म, सर्व तत्त्व, जिनेन्द्रोंके, पुराण, पुण्य-पापके फल, सुधर्मके क्षमादिक लक्षण, और अहिंसादि व्रतोंको सुना ।। ९४-९५|| तत्पश्चात् श्रेणिक राजाने श्रीगौतम प्रभुको नमस्कार कर पूछा- हे भगवन्, मेरे ऊपर दया करके मेरे पूर्वजन्मोंको कहिए ||१६|| श्रेणिकके प्रश्नको सुनकर परोपकारी श्री गौतम गणधर बोले- हे श्रीमन्, मैं तेरे तीन भवसे सम्बन्ध रखनेवाले वृत्तान्तको कहता हूँ सो तू सुन ॥९७॥
इसी जम्बूद्वीपमें विन्ध्याचल पर कुटव नामक वनमें एक खदिरसार नामका भला भील रहता था ||९८|| उस बुद्धिमान् ने किसी समय पुण्योदयसे सर्व प्राणियों के हित करने में समाधिगुप्त योगीको देखकर प्रणाम किया ||१९|| उन्होंने 'हे भद्र, तुझे धर्मलाभ हो' यह आशीर्वाद दिया । यह सुनकर उस भीलने मुनीश्वर से पूछा - हे नाथ, वह धर्म कैसा है, उससे प्राणियोंका क्या कार्य सिद्ध होता है; उसका क्या कारण है और उससे इस लोक में क्या लाभ है, यह मुझे बतलाइए । १००-१०१।। उसके इन वचनोंको सुनकर योगिराजने कहाहे भव्य, मधु, मांस और मदिरा आदिके खान-पानका बुद्धिमानोंके द्वारा त्याग किया जाना
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