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१९.५६]
एकोनविंशोऽधिकारः
२०५
नमः सन्मतये तुभ्यं महावीराय ते नमः । नमो वीराय ते नित्यं मूर्धा देव स्वसिद्धये ॥४२॥ अनेन स्तवसद्भक्तिनमस्कारफलेन च । देव देहि त्वमस्माकं भक्तिमेका भवे भवे ॥४३॥ तव पादाम्बुजे सम्यग्दृञ्चिद्वृत्तादिपूर्विकाम् । नान्यद्बहुतरं किंचित्त्वां प्रार्थयाम एव हि ॥४४॥ यतः सैवात्र भक्तिर्नोऽमुत्र नूनं फलिष्यति । त्रिजगत्सारशर्माणि मनोऽमीष्टफलानि च ॥४५॥ इति शक्रोक्तित: पूर्व जगत्संबोधनोद्यतः । पुनः प्रार्थनयास्यासौ तीर्थकृत्कर्मपाकतः ॥४६॥ तरां स्थापयितं भव्यान्मक्तिमार्ग भ्रमातिगे। निहत्याखिलदर्मार्गानुद्ययौ त्रिजगदगरुः ॥१७॥ ततोऽसौ भगवान् देवैर्वीज्यमानः सुचामरैः । वृतो गणैर्द्विषड्भेदैः सितछत्रत्रयाङ्कितः ॥४८॥ परीतः परया भूत्या ध्वनत्सु वाद्यकोटिषु । विहारं कर्तुमारेभे विश्वसंबोधहेतवे ॥४९॥ सदा पटहतूर्याणां दध्वनुः कोटयस्तराम् । आसीद्बुद्धं चल दिनभश्छत्रध्वजपङ्क्तिभिः ॥१०॥ जय मोहं जगच्छत्रु नन्देश भुवनत्रये । घोषयन्तोऽमरा इत्थं परितस्तं विनिर्ययुः ॥५१।। देवोऽसौ विहरत्येवमनुयातः सुरासुरैः । अनिच्छापूर्विकां वृत्तिमास्कन्दनिव भानुमान् ॥२२।। सर्वत्रास्थानतो दिक्षु सर्वासु जायतेऽहंतः । शतयोजनमात्रं च सुभिक्षमीतिवर्जनम् ॥ ३॥ विश्वमव्योपकारार्थ व्रजत्येष नमोऽङ्गणे । नानादेशाद्रिपुर्यादीन् धर्मचक्रपुरासरः ॥५४॥ विभोः साम्यप्रमावेण क्रूरैः सिंहादिजातिभिः । बाधो न वर्तते जातु मृगादोनां मयादि च ॥५५॥
नोकर्माहारपुष्टस्यानन्तसुखमागिनः । भुक्तिर्न वीतरागस्य विद्यते धातिघातनात् ॥५६॥ मुक्तिस्त्रीके वल्लभ (प्रिय ) आपको नमस्कार है ॥४१।। हे सन्मति, आपको मेरा नमस्कार है, हे महावीर, आपको मेरा नमस्कार है और हे वीर प्रभो, हे देव, आत्म-सिद्धिके लिए आपको मेरा मस्तक झुकाकर नित्य नमस्कार है ॥४२॥ हे देव, इस स्तवन, सद्भक्ति और नमस्कारके फलसे आप हमें भव-भवमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिपूर्वक अपने चरण-कमलोंमें एकमात्र भक्तिको ही दीजिए। हे भगवन् , हम इसके सिवाय और अधिक कुछ भी नहीं चाहते हैं। क्योंकि वह एक भक्ति ही हमारे इस लोकमें और परलोकमें निश्चयसे तीन लोकमें सारभूत सुखोंको और मनोवांछित सर्व फलोंको देगी॥४३-४५।। इस प्रकार इन्द्र के निवेदन करनेसे भी पहले भगवान् जगत्के सम्बोधन करनेके लिए उद्यत थे, किन्तु फिर भी इन्द्रकी प्रार्थनासे और तीर्थकर प्रकृतिके विपाकसे वे त्रिजगद्गुरु भव्य जीवोंको समस्त दुर्मार्गोंसे हटाकर और भ्रमरहित मुक्तिमार्गपर स्थापित करनेके लिए उद्यत हुए ॥४६-४७॥
___ अथानन्तर देवोंके द्वारा उत्तम चवरोंसे वीज्यमान, द्वादश गणोंसे आवृत, श्वेत तीन छत्रोंसे शोभित और उत्कृष्ट विभूतिसे विभूषित भगवान्ने करोड़ों बाजोंके बजनेपर संसारको सम्बोधनके लिए विहार करना प्रारम्भ किया ॥४८-४९।। उस समय करोड़ों पटह (ढोल) और तूर्यों ( तुरई ) के बजनेपर तथा चलते हुए देवोंसे तथा छत्र-ध्वजा आदिकी पंक्तियोंसे आकाश व्याप्त हो गया ॥५०॥ हे ईश, जगत्के जीवोंके शत्रुभूत मोहको जीतनेवाले आपकी जय हो, आप आनन्दको प्राप्त हों, इस प्रकारसे जय, नन्द आदि शब्दोंकी तीन लोकमें घोषणा करते हुए देवगण भगवानको सर्व ओरसे घेरकर निकले ॥५१।। सुर और असुर देवगण जिनके अनुगामी हैं ऐसे श्री वीर जिनेन्द्र अनिच्छापूर्वक गतिको प्राप्त होते हुए सूर्यके समान विहार करने लगे ॥५२॥ विहार करते समय सर्वत्र भगवान्के अवस्थानसे सवें दिशाओं में सौ योजन तक सभी ईति-भीतियोंसे रहित सुभिक्ष (सुकाल) रहना है ।।५३॥ धर्मचक्र जिनके आगे चल रहा है, ऐसे वीर प्रभुने संसारके भव्य जीवोंके उपकारके लिए गगनांगणमें चलते हुए अनेक देश, पर्वत और नगरादिमें विहार किया ॥५४॥ वीर प्रभुके साम्य भावके प्रभावसे क्रूर जातिवाले सिंहादिके द्वारा मृगादिके कदाचित् भी बाधा और भयादि नहीं होता था ॥५५॥ घातिकर्मों के विनाशसे विशिष्ट नोकर्मरूप अहारसे पुष्ट और अनन्त सुखके
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