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श्री-वीरवर्धमानचरित काललद्धीए विणा असहेज्जस्स देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो। सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तूण अण्णमुद्दिसिय दिव्वझुणी किण्ण पयट्टदे ? साहावियादो। ण च सहावो परपज्जणिओगारहो, अव्वबत्थापत्तीदो।
शंका-केबलिकालमें-से छयासठ दिन किसलिए कम किये गये है ?
समाधान-भ. महावीरको केवलज्ञानकी उत्पत्ति हो जानेपर भी छ्यासठ दिन तक धर्मतीर्थकी उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिए केवलिकालमें-से छयासठ दिन कम किये गये हैं।
शंका-केवलज्ञानकी उत्पत्तिके अनन्तर छयासठ दिन तक दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई ? समाधान-गणधर न होनेसे ? शंका-सौधर्मेन्द्रने तत्क्षण ही गणधरको क्यों: समाधान-नहीं, क्योंकि काललब्धिके बिना असहाय सौधर्म इन्द्र भी गणधरको ढुंढने में असमर्थ रहा ।
शंका-अपने पादमूलमें महाव्रत स्वीकार करनेवाले पुरुषको छोड़कर अन्यके निमित्तसे दिव्यध्वनि क्यों नहीं प्रकट होती है ?
समाधान-ऐसा ही स्वभाव है और स्वभाव दूसरोंके द्वारा प्रश्न करनेके योग्य नहीं होता। यदि वस्तु-स्वभावमें ही प्रश्न होने लगे तो फिर किसी भी वस्तुकी कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी।
अतएव कुछ कम चौंतीस वर्ष प्रमाण कालके शेष रहनेपर भ. महावीरके द्वारा धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई।
हरिवंशपुराणकार आ. जिनसेनने भी श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके प्रातःकाल अभिजित् नक्षत्रके समय भ. महावीरकी दिव्यध्वनि प्रकट होने का उल्लेख किया है। यथा
स दिव्यध्वनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः । दुन्दुभिध्वनिधीरेण योजनान्तरयायिना ।। श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रे भिजिति प्रभुः ।
प्रतिपद्यह्नि पूर्वाह्ने शासनार्थमुदाहरत् ।। ( हरिवंशपुराण, सर्ग २, श्लो. ९०-९१ ) इस प्रकार तिलोयपण्णत्ती, धवला-जयधवला टीका और हरिवंशपुराणमें श्रावणकृष्णा प्रतिपदाके प्रातःकाल अर्थात केवलज्ञानकी वैशाखशुक्ला दशमीको उत्पत्ति हो जानेके ६६ दिन पश्चात भगवान महावीरके द्वारा धर्म-देशनाका स्पष्ट उल्लेख होनेपर भी सकलकीतिने इसका उल्लेख क्यों नहीं किया, यह बात विचारणीय है।
सकलकीर्तिने प्रत्येक कल्याणकके समय भगवान की भरपूर स्तुति की है, इसके अतिरिक्त संगमकदेव और स्थाणु रुद्रके द्वारा उपसर्ग करनेपर भी भगवान्के निर्भय और अटल रहनेपर उनके द्वारा भी उत्तम शब्दोंमें स्तुति करायी है। इन्द्रभूति गौतमकी सभी पृच्छाओंका उत्तर दिये जानेपर उन्होंने जो गम्भीर और मार्मिक शब्दोंके द्वारा ४२ श्लोकोंमें स्तुति की है, वह भी अत्यन्त भावपूर्ण है। दीक्षा लेते समय सकलकीतिने इन्द्र-द्वारा जो वीर जिनेश्वरकी व्याज-स्तुति करायी है वह अनुपम एवं पठनीय है । (देखो अधिकार १२, श्लो. १०८-१३४) इस प्रकार प्रस्तुत चरितमें सब मिलाकर लगभग २०० श्लोक स्तुति-परक है । प्रत्येक अधिकारके प्रारम्भमें तो वीरनाथको वन्दन किया ही है, किन्तु सभी अधिकारोंके अन्त में सभी विभक्तियोंके द्वारा भगवान् महावीरकी स्तुतिवाले श्लोक भी उनकी अनुपम भक्तिके द्योतक है।
प्रस्तुत चरितके पाँचवें, छठे और तेरहवें अधिकारमें बारह तपोंका वर्णन भी १३३ श्लोकोंमें द्रष्टव्य है। वैराग्यका वर्णन यद्यपि स्थान-स्थानपर किया है, पर जब भगवान महावीर संसारसे विरक्त हुए, तब उनके मनोगत वैराग्य-उद्भतिका चित्रण भी सकलकीतिने दशवें अधिकारमें बहुत सुन्दर किया है। भगवान ने जिस प्रकार बारह भावनाओंका चिन्तवन किया, उसके लिए तो सकलकीतिने पूरा एक बारहवाँ अधिकार रचा है । इसके अतिरिक्त छठे अधिकारमें षोडश कारण भावनाओंका भी सुन्दर वर्णन किया है। तीसरे और चौधे अधिकारमें नरकके दुःखोंका वर्णन भी पठनीय है। पांचवें अधिकारमें चक्रवर्तीके विशाल वैभवका वर्णन किया गया है।
भगवान महावीरके दीक्षार्थ वन-गमनके समय उनके पिताका शोक और माता त्रिशलाका करुण विलाप तो पाठकके नेत्रोंमें भी आँसू लाये बिना न रहेगा। सकलकोतिके इस वर्णनसे सिद्ध होता है कि भगवान के
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