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१८.५७ ] अष्टादशोऽधिकारः
१९३ वधबन्धादयः पापात्परद्रव्यापहारिणाम् । जायन्तेऽत्रैव चामुत्र श्वभ्रदुःखाम्यनेकशः ॥४३॥ सर्पिणीरिव सर्वान्य स्त्रियस्त्यक्त्वा विधीयते । संतोषो यः स्वरामायां तद्ब्रह्माणुव्रतं मतम् ॥४४॥ क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं दासीदासाश्चतुष्पदाः । आसन शयन वस्त्रं भाण्ड्य सङ्गा इमे दश ॥४५॥ एषां परिग्रहाणां च संख्या या क्रियते बुधैः । लोभाशाधविनाशाय पञ्चमं तदणुव्रतम् ॥४६॥ परिग्रहप्रमाणेन चाशालोभादयः सताम् । विलीयन्तेऽत्र जायन्ते संतोषधर्मभूतयः ॥४७॥ योजनग्रामसीमाद्यमर्यादा या विधीयते । गमनादौ दशाशानां प्रथमं तद्गणव्रतम् ॥४८॥ विना प्रयोजनं यच्च पापारम्भायनेकधा । त्यज्यतेऽनर्थदण्डादिविरतिव्रतमेव तत् ॥४९॥ पापोपदेशहिंसादानापध्यानानि दुःश्रुतिः । निन्द्या प्रमादचयते तद्भेदाः पञ्च पापदाः ॥५०॥ भोगानामुपभोगानां प्रमाणं क्रियतेऽत्र यत् । पञ्चाक्षारिजयायैव तत्तृतीयं गुणवतम् ॥५१॥ शृङ्गवेरादयः कन्दा अनन्तजीवकायिकाः । कीटाढ्यफलमूलाधाः कुसुमात्थानकादयः ॥५२॥ अभक्ष्याः सर्वथा त्याज्या विषविष्टा इवाखिलाः । व्रताय पापहान्यै च अतिभिः पापमीरुभिः ॥५३॥ गृहपाटकवीथ्याधैर्गमनादेर्दिनं प्रति । गृह्यते नियमं यत्तद्वतं देशावकाशिकम् ॥५४॥ हत्त्वा दुर्ध्यान-दुलेश्याः सामायिकं प्रपाल्यते । काले काले त्रिवारं यत्तच्च सामायिकवतम् ॥५५॥ अष्टम्यां यश्चतुर्दश्यां त्यक्त्वारम्भान् विधीयते । नियमेनोपवासस्तृतीयं शिक्षाव्रतं च तत् ॥५६॥ मुनिभ्यो दीयते दानं विधिना यचतुर्विधम् । निष्पापं प्रत्यहं भक्त्या शिक्षाव्रतं तदन्तिमम् ॥५७॥
परधनके अपहरण करनेवालोंको इस लोकमें ही चोरीके पापसे वध-बन्धनादि दण्ड प्राप्त होते हैं और परलोकमें अनेक बार नरकके दुःख प्राप्त होते हैं ॥४३॥ सर्पिणियोंके समान समझकर जो अन्य सर्व स्त्रियोंका त्याग कर अपनी स्त्री सन्तोष धारण किया जाता है वह चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत माना गया है ॥४४॥ क्षेत्र, वास्तु, धन-धान्य, दासी-दास, चतुष्पद, पशु, आसन, शयन, वस्त्र और भांड ये दश प्रकार के परिग्रह होते हैं। ज्ञानी जनोंके द्वारा लोभ और आशारूप पापके विनाशके लिए जो इन दशों प्रकारके परिग्रहोंकी संख्या स्वीकार की जाती है वह पाँचवाँ परिग्रहपरिमाणाणुव्रत है।।४५-४६॥ परिग्रहके परिमाणसे सज्जनोंकी आशाएँ और लोभादिक विलीन हो जाते हैं, तथा इसी लोकमें सन्तोष धर्मके प्रभावसे अनेक विभूतियाँ प्राप्त होती हैं ॥४७॥ योजन और ग्रामसीमा आदिके द्वारा दशों दिशामें गमनादिकी जो मर्यादा की जाती है वह दिग्वत नामका पहला गुणव्रत है ॥४८|| बिना प्रयोजनके जो अनेक प्रकारके पापारम्भोंका त्याग किया जाता है, वह अनर्थदण्डविरति नामका दूसरा गुणत्रत है॥४९॥ उस पापकारी अनर्थदण्डके पाँच भेद हैं-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और निन्दनीय प्रमादचर्या ।।५०।। पाँच इन्द्रियरूप शत्रुओंके जीतनेके लिए भोग-उपभोगकी वस्तुओंका प्रमाण किया जाता है, वह भोगोपभोगपरिमाण नामका तीसरा गुणव्रत है ॥५१॥ अनन्त जीवकायिक अदरक आदि कन्द, मूली आदि मूल, कीड़ोंसे युक्त फलादिक, कुसुम ( फूल ), अथाना (अचार-मुरब्बा) आदिक अभक्ष्य हैं। ये सब पाप-भीरु व्रती जनोंके द्वारा पापकी हानि और व्रतकी वृद्धिके लिए विष और विष्टाके समान छोड़नेके योग्य हैं ।।५२-५३॥ दिग्वतकी सीमाके अन्तर्गत प्रतिदिन गमनागमनादिकी घर, बाजार, गली, मोहल्ला आदिकी सीमा द्वारा नियम ग्रहण किया है वह देशावकाशिक नामका पहला शिक्षाबत है॥५४॥ दुयोन
और दुर्लेश्याको छोड़कर प्रतिदिन प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल तीन बार सामायिक पालन किया जाता है, वह सामायिक नामका दूसरा शिक्षाव्रत है ।।५५।। प्रत्येक मासकी अष्टमी और चतुर्दशीके दिन सर्व गृहारम्भोंको छोड़कर नियमसे जो उपवास किया जाता है, वह प्रोषधोपवास नामका तीसरा शिक्षाबत है ॥५६॥ मुनियोंके लिए प्रतिदिन विधिपूर्वक भक्तिसे जो निर्दोष दान दिया जाता है, वह अतिथिसंविभाग नामका चौथा शिक्षाव्रत है ।।५।।
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