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१८.२७ ]
अष्टादशोऽधिकारः
तत्त्वार्थानां परिज्ञानं याथातथ्येन यत्सताम् । विपरीतातिगं तज्ज्ञानं व्यवहारसंज्ञकम् ॥१४॥ ज्ञानेन ज्ञायते विश्वं धर्मं पापं हिताहितम् । बन्धो मोक्षः परीक्षा व देवधर्मादियोगिनाम् ॥१५॥ ज्ञानहीनो न जानाति हेयादेयं गुणागुणम् । कृत्याकृत्यं विवेकं च तस्वानामन्धवत् क्वचित् ॥ १६ ॥ मत्वेति प्रत्यहं यत्नात्स्वर्मुक्तिसुखकाङ्क्षिणः । जिनागमश्रुताभ्यासं कुरुध्वं शिवसिद्धये ॥१७॥ हिंसादिपञ्चपापानां सामस्त्येन च सर्वदा । व्यजनं यस्त्रिगुप्त्यापञ्चधा समितिपालनैः ॥ १८ ॥ arti व्यवहाराख्यं भुक्तिमुक्तिनिबन्धनम् । तज्ज्ञेयं शर्मंदं सारं कर्मागमनिरोधकम् ॥१९॥ चारित्रेण विना जातु तपोऽङ्गक्लेशकोटिभिः । कर्मणां संवरः कर्तुं शक्यते न जिनैरपि ॥२०॥ संवरेण विना मुक्ति कुतो मुक्तेर्विना सुखम् । कथं च जायते पुंसां शाश्वतं परमं यतः ॥२१॥ वृत्तहीनो जिनेन्द्रोऽपि दृष्टिविज्ञानभूषितः । सुराय जातु पश्येन्नाहो मुक्तिस्त्रीमुखाम्बुजम् ॥२२॥ चिरप्रव्रजितो ज्येष्टो मुनिश्चानेकशास्त्रवित् । राजते न विना वृत्ताद्दन्तहीनो गजो यथा ॥ २३॥ विज्ञायेति बुधैर्धार्यं चारित्रं शशिनिर्मलम् । न च स्वप्नेऽपि मोक्तव्यं ह्युपसर्गपरीषहैः ||२४|| sitari साक्षात्तीर्थं कृत्वादिसद्विधेः । कारणं निश्चयाख्यस्य रत्नत्रयस्य साधकम् ॥ २५ ॥ सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तमहासुखकरं सताम् । निरौपम्यं जगत्पूज्यं भव्यानां परमं हितम् ॥२६॥ अनन्तगुणवाराशेः स्वात्मनोऽभ्यन्तरेऽत्र यत् । श्रद्धानं निश्चयाख्यं तत्सम्यक्त्वं कल्पनातिगम् ॥२७॥
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तार्थीका जो सन्त पुरुषोंके विपरीतपनेसे रहित यथार्थरूपसे ज्ञान होता है, वह व्यवहार सम्यग्ज्ञान है || १४ || ज्ञानके द्वारा ही सर्व धर्म-अधर्म, हित-अहित, बन्ध-मोक्ष ज्ञात होते हैं, एवं देव, गुरु और धर्मादिकी परीक्षा जानी जाती है ||१५|| ज्ञान-हीन व्यक्ति हेयउपादेय, गुण-अवगुण, कर्तव्य अकर्तव्य और तत्वोंके विवेकको अन्धेके समान कभी नहीं जानता है ||१६|| ऐसा जानकर स्वर्ग और मुक्तिके सुखोंके अभिलाषी तुम सब लोग मोक्षकी सिद्धिके लिए जिनागमश्रुतका अभ्यास करो ॥१७॥
हिंसादि पाँचों पापोंका समस्त रूपसे, अर्थात् कृत कारित और अनुमोदनासे, सर्वदा के लिए त्रियोगकी शुद्धि पूर्वक तीन गुप्ति और पंच समितिके परिपालनके साथ त्याग करना व्यवहार चारित्र है, यह भुक्ति ( सांसारिक भोगसुख) और मुक्तिका कारण है, इसे ही कर्मों के आस्रवका रोकनेवाला और सारभूत सुखका देनेवाला जानना चाहिए ।। १८-१९।। औरोंकी तो बात ही क्या है, तीर्थंकर भी चारित्रके विना शरीरको कष्ट देनेवाले कोटि-कोटि तपोंके द्वारा कर्मोंका संवर नहीं कर सकते हैं ||२०|| संवरके विना मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है और कर्मों से मुक्त हुए बिना जीवोंको शाश्वत स्थायी परम सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ||२१||
सम्यग्दर्शन और तीन ज्ञानसे विभूषित एवं देवेन्द्रोंसे पूजित भी चारित्र-हीन तीर्थंकर देव अहो मुक्तिस्त्रीके मुख कमलको नहीं देख सकते हैं ।। २२ ।। चिरकालका दीक्षित, अनेक शास्त्रोंका वेत्ता भी ज्येष्ठ मुनि चारित्रके विना दन्त-हीन हाथीके समान शोभाको नहीं पाता है ।। २३ ।। ऐसा जानकर ज्ञानियोंको चन्द्रके समान निर्मल ( निर्दोष ) चारित्र धारण करना चाहिए और उपसर्ग परीषहोंके आने पर स्वप्न में भी उसे नहीं छोड़ना चाहिए ||२४|| यह व्यवहार रत्नत्रय तीर्थंकर आदि शुभपद देनेवाले शुभकर्मका साक्षात् कारण है और निश्चय रत्नत्रयका साधक है || २५ || यह व्यवहाररत्नत्रय सर्वार्थसिद्धि तक के महासुख सन्त जनोंको प्रदान करता है, उपमा-रहित है, जगत्पूज्य है और भव्यों का परम हितकारी है ||२६||
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अनन्त गुणोंके सागर ऐसे अपने आत्माका जो भीतर श्रद्धान किया जाता है, वह निर्विकल्प निश्चय सम्यक्त्व है ||२७|| स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा अपने ही परमात्माका जो