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१८२ श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१७.१०८प्रजल्पन्ति वृथा येऽत्र विकथाः प्रत्यहं शठाः । दोषानिर्दोषिणां चाहच्छ्रुतसद्गुरुर्मिणाम् ॥१०॥ पठन्ति पापशास्त्राणि स्वेच्छया च जिनागमम् । विनयादि विना लोभख्यातिपूजादिवाञ्छया ॥१०९॥ धर्मसिद्धान्ततत्वार्थानयुक्त्याऽन्यान दिशान्ति च । ते ज्ञानावृतिपाकेन मूकाः स्युः श्रतवर्जिताः ॥१०॥ स्वेच्छया ये प्रवर्तन्ते हिंसादिपापपञ्चसु । उन्मत्ता इव गृहन्ति तत्वार्थान् श्रीजिनोदितान् ॥११॥ देवश्रुतगुरून् धर्मार्चादीन् सत्यांस्तथेतरान् । भवन्ति विकलास्ते मतिज्ञानावरणोदयात् ॥११२॥ कुबुद्धया येऽत्र सेवन्ते सप्त वै व्यसनान्यलम् । विषयामिषलाम्पटयान्मूर्खा दुर्गतिगामिनः ।।११३॥ मित्रत्वं च प्रकुर्वन्ति व्यसनासक्तचेतसाम् । मिथ्यादृशां च साधुभ्यो दूरं नश्यन्ति पापिनः ॥११४॥ ते श्वभ्रादिगतीर्धान्त्वा पुनः श्वभ्रादिसिद्धये । उत्पद्यन्तेऽतिपापेन खला दुर्व्यसनाकुलाः ।।११५॥ तपोयमव्रतादीन् विना येऽतिलम्पटाशयाः । पोषयन्ति वपुर्नित्यं नानाभोगैर्वृषादृते ॥११६॥ चरन्ति निशि चान्नादीन् पीडयन्स्यङ्गिन्नो वृथा । भक्षयन्ति ह्यखाद्यानि पापिनः करुणातिगाः ॥११७॥ तेऽसातकर्मपाकेन कृत्स्नरोगैकभाजनाः । जायन्ते रोगिणस्तीव्रवेदना विह्वलाशयाः ॥११८॥ शरीरे ममतां त्यक्त्वा ये चरन्ति तपोव्रतम् । स्वसमां जीवराशिं विज्ञाय घ्नन्ति न जातुचित् ॥११९॥ आक्रन्ददुःखशोकादीन् स्वान्ययोजनयन्ति न । भवेयुः सुखिनस्तेऽत्र विश्वरोगातिगाः शुभात् ।। १२०॥ ये न कुर्वन्ति संस्कारं वपुषो मण्डनादिभिः । तपोनियमयोगाद्यः कायक्लेशं श्रयन्ति च ॥१२॥
सेवन्ते परया भक्त्या पादाब्जान जिनयोगिनाम् । शुभप्रकृतिपाकेन दिव्यरूपा भवन्ति ते ॥१२२॥ परस्त्रियोंके स्तन, योनि आदि अंगोंको आदर और प्रेमसे देखते हैं, कुतीर्थी, कुदेवभक्त और कुलिंगी है, वे पुरुष चक्षुदर्शनावरणकर्मके उदयसे अतीव दुःख भोगनेवाले अन्धे होते हैं ॥१०६-१०७॥ जो शठ यहाँपर प्रतिदिन वथा ही विकथाओंको कहते रहते हैं. निर्दोष अर्हन्त, श्रुत, सद्-गुरु और धार्मिकजनोंके मन-गढन्त दोषोंको कहते हैं, पापशास्त्रोंको अपनी इच्छासे पढ़ते हैं, और जिनागमको विनय आदिके बिना लोभ, ख्याति, पूजा आदिकी इच्छा से पढ़ते हैं, जो धर्म, सिद्धान्त और तत्त्वार्थका कुयुक्तियोंसे अन्यथारूप दूसरोंको उपदेश देते हैं, वे जीव ज्ञानावरणकर्मके विपाकसे श्रुतज्ञानसे रहित मूक (गूंगे ) होते हैं ॥१०८-११०।। जो जीव हिंसादि पाँचों पापोंमें अपनी इच्छासे प्रवृत्त होते हैं, श्रीजिनेन्द्रदेवसे उपदिष्ट तत्त्वार्थको उन्मत्त पुरुषके समान यद्वा-तद्वा रूपसे ग्रहण करते हैं, तथा सत्य और असत्य देव शास्त्र, गुरु, धर्म, प्रतिमा आदिको भी समान मानते हैं, ऐसे जीव मति ज्ञानावरणकर्मके उदयसे विकलाङ्गी होते हैं ॥१११-११२।। जो लोग कुबुद्धिसे यहाँपर सातों व्यसनोंका भरपूर सेवन करते हैं, वे मूर्ख विषय-लोलुपता और मांस-भक्षणकी लम्पटतासे दुर्गतियोंमें जाते हैं ।।११३।। जो लोग नरकादिकी सिद्धिके लिए व्यसनासक्त चित्तवाले मिथ्यादृष्टियोंके साथ मित्रता करते हैं, और साधु पुरुषों से दूर रहते हैं, वे पापी जन विनाशको प्राप्त होते हैं, वे अति पापके उदयसे नरकादि गतियोंमें परिभ्रमण कर दुर्व्यसनी और दुःखोंसे व्याकुल दुर्गतियोंमें उत्पन्न होते है ।।११४-११५।। जो अति लम्पट चित्तवाले पुरुष तप, संयम, व्रतादिके विना धर्मको छोड़कर नाना प्रकारके भोगोंसे शरीरको सदा पोषण करते रहते हैं, रात्रिमें अन्नादिको खाते है, प्राणियोंको अकारण वृथा पीड़ा देते हैं, अभक्ष्य वस्तुओंको खाते हैं, और करुणासे रहित हैं, वे पापी असाताकर्मके परिपाकसे सर्व रोगोंके भाजन, तीव्र वेदनासे विह्वल चित्तवाले ऐसे महारोगी उत्पन्न होते हैं ॥११६-११८॥ जो पुरुष शरीरमें ममताका त्याग कर तप और व्रतको पालते हैं, अपने समान सर्वजीवराशिको मानकर किसी भी जीवका कभी भी घात नहीं करते हैं, जो आक्रन्दन, दुःख, शोक आदि न स्वयं करते हैं और न दूसरोंको उत्पन्न कराते हैं, वे मनुष्य यहाँपर साता कर्मके उदयसे सर्व रोगादिसे दूर रहते हैं, और निरोगी सुखी जीवन यापन करते हैं ॥११९-१२०|| जो ज्ञानी पुरुष आभूषण आदिसे शरीरका संस्कार
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