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१७.४५ ]
सप्तदशोऽधिकारः
१७७
धर्मोपदेशदं मिष्टं सत्यसीमाद्यधिष्ठितम् । वचः सूते परं पुण्यं सतां चाहत्पदादिजम् ॥३०॥ कायोत्सर्गासनापन्नं जिनेन्द्रयजनोद्यतम् । गुरुसेवापरं पात्रदानदं विक्रियातिगम् ॥३१॥ शुभकर्मकरं साम्यतापन्नं वपुरद्भुतम् । विश्वशर्मकरं पुण्यं जनयत्यत्र धीमताम् ॥३२॥ अनिष्टं यद्भवेत्स्वस्य तदन्येषां न जातु यः । चिन्तयेत्सर्वदा तस्य परं पुण्यं न संशयः ॥३३॥ पुण्यकारणभूतानि बहून्याख्याय तीर्थराट् । संवेगाय गणानां तत्फलमाहेत्यनेकधा ॥३४॥ कामिनीः कमनीयाङ्गाः कामदेवनिभान् सुतान् । स्वजनान्मित्रतुल्यांश्च कुटुम्ब शर्मकारणम् ॥३५॥ पर्वतामान् गजेन्द्रादीन् कविवाक्यातिगं सुखम् । महाभोगोपभोगांश्च वपुः कान्तं वचः शुमम् ॥१६॥ मानसं करुणाक्रान्तं रूपलावण्यसंपदः । लभन्ते पुण्यपानानान्यद्वा दुःकरं जनाः ॥३७॥ जगत्त्रयस्थिता लक्ष्मीर्दुलभा पुण्यकारिणी । वशं याति स्वयं पुण्याद् गृहदासीव धर्मिणाम् ॥३८॥ त्रिजगन्नाथसेव्याचं परं सर्वज्ञवैभवम् । पुण्योदयेन जायेत सतां मुक्तिनिबन्धनम् ॥३९॥ विश्वामरगणाभ्यच्यं विश्वभोगैकमन्दिरम् । विश्वनीभूषितं पुण्याल्लभेतेन्द्रपदं कृती ॥४॥ निधिरनादिसंपूर्णाः षटखण्डप्रमवाः श्रियः । पुण्योदयेन जायन्ते पुण्यभाजां सुखाकराः ॥४१॥ यत्किंचिद् दुर्लभं लोके दुर्घटं वा जगस्नये । सारं सद्वस्तु सर्व मोस्तरक्षणं लभ्यते शुमात् ॥४२॥ इत्यादिविविधं ज्ञात्वा पुण्यस्य प्रवरं फलम् । शर्मकामाः प्रयत्नेन कुरुध्वं पुण्यमूर्जितम् ॥४३॥ इत्यमा पुण्यपापाभ्यां तत्त्वान्युक्त्वा जिनाग्रणीः । हेयादेयादिकतणि तेषां प्राह गणान् प्रति ॥४४॥ मध्येऽत्र जीवराशीनां पञ्चैव परमेष्ठिनः । उपादेयाः सतां ज्ञेया विश्वमव्यहितोधताः ॥१५॥
स्वनिन्दाकारक, पर-निन्दासे दूर रहनेवाला, सुकोमल, धर्मका उपदेश देनेवाला, मिष्ट और सत्यकी सीमा आदिसे युक्त वचन अरिहन्तपद आदिको उत्पन्न करनेवाले पुण्यको सज्जनोंके उत्पन्न करता है ।।२९-३०॥ कायोत्सर्ग आसनको प्राप्त, जिनेन्द्र पूजनमें उद्यत, गुरुसेवामें तत्पर, पात्रदान करनेवाला, विकारसे रहित, शुभ कार्य करनेवाला और समता भावको प्राप्त काय बुद्धिमानोंके सर्व सुख उत्पन करनेवाले अद्भत पुण्यको उत्पन्न करता है ॥३१-३२।। जो बात अपना अनिष्ट करनेवाली है, उसे कभी भी, जो दूसरोंके लिए नहीं चिन्तवन करता है, उसके सर्वदा परम पुण्यका उपार्जन होता रहता है, इसमें कोई संशय नहीं है ।।३३।। इस प्रकारसे तीथके सम्राट् वर्धमान स्वामीने पुण्यके कारणभूत बहुतसे कार्योंको कहकर द्वादशगणके जीवोंको संवेग-प्राप्तिके लिए पुनः उन्होंने पुण्यके अनेक प्रकारके फलोंको कहा ॥३४|| पुण्यके फलसे जीव सुन्दर शरीरवाली स्त्रियोंको, कामदेवके समान सुपुत्रोंको, मित्रतुल्य स्वजनोंको, सुन्दर शरीरको, मिष्ट शुभ वचनको, करुणासे व्याप्त मनको, और रूपलावण्य-सम्पदाको तथा अन्य भी दुर्लभ वस्तुओंको प्राप्त करते हैं ॥३५-३७॥ पुण्यके उदयसे तीन लोकमें स्थित, पुण्यकारिणी लक्ष्मी गृहदासीके समान धर्मी पुरुषोंके वशमें होकर स्वयं प्राप्त होती है ॥३८॥ पुण्यके उदयसे सज्जनोंको मुक्तिका कारण तथा तीन लोकके स्वामियोंसे पूज्य उत्कृष्ट सर्वज्ञवैभव प्राप्त होता है ॥३९॥ पुण्यके उदयसे सुकृती पुरुष समस्त देवोंसे पूज्य, सर्व भोगोंका एक मात्र मन्दिर, और संसारकी श्रेष्ठ लक्ष्मीसे भूषित इन्द्रपद प्राप्त होता है ॥४०॥ पुण्यसेवी पुरुषोंके पुण्यके उदयसे नौ निधि और चौदह रत्नोंसे परिपूर्ण, षट् खण्ड भूमिमें उत्पन्न और सुखकी भण्डार ऐसी चक्रवर्ती की सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं ॥४१।। संसारमें जो कुछ भी दुर्लभ अथवा दुर्घट सार उत्तम वस्तुएँ हैं, वे सब हे भव्यो, शुभ पुण्यसे तत्क्षण प्राप्त होती हैं ॥४२॥ इत्यादि विविध प्रकारके पुण्यके श्रेष्ठ फरको जानकर सुखके इच्छुक जनोंको प्रयत्न पूर्वक उत्कृष्ट पुण्यका उपार्जन करना चाहिए ॥४३॥
इस प्रकारसे जिनाग्रणी जिनराजने पुण्य-पापके साथ सात तत्त्वोंको कहकर गणोंके लिए उनके हेय-उपादेयादि कारक कर्तव्योंको कहना प्रारम्भ किया ॥४४॥ इस संसारमें सर्व
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