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१६.६८ ]
षोडशोऽधिकारः
संज्ञ्यसंज्ञयभिधा जीवा द्विधाहारकदेहिनः । इत्युक्तास्तीर्थनाथेन मार्गणा हि चतुर्दश ॥ ५६ ॥ मृग्याः संसारिणो जीवा आशुमार्गणकोविदैः । चतुर्गतिगता यत्नाज्ज्ञानाय दृग्विशुद्धये ॥ २७ ॥ मिथ्यासासादनौ मिश्रोऽदिरतो देशसंयतः । प्रमत्ताख्योऽप्रमत्ताभिधोऽपूर्व करणाह्वयः ॥ ५८ ॥ गुणस्थानोऽनिवृत्यादिकरणो नवमस्ततः । सूक्ष्मादिसाम्परायाख्यो ह्युपशान्तकषायकः ॥५९॥ ततः क्षीणकषायः सयोग्ययोगिजिनाविति । चतुर्दशगुणस्थाना व्यासेनोक्ताश्चतुर्दश ॥ ६० ॥ निर्वाणं ये गता भव्या यान्ति यास्यन्ति भूतले । केवलं ते गुणैरेतांश्चारुह्य नान्यथा क्वचित् ॥ ६१॥ यतोऽत्रैकादशाङ्गार्थविदोऽभव्यस्य सर्वदा । दीक्षितस्यैक एवाहो गुणस्थानो न चापरः ॥ ६२ ॥ यथा कालोः शर्करादुग्धं च पिवन् विषम् । न मुञ्चति तथा भग्यो मिध्यात्वं चागमामृतम् ॥ ६३॥ अतोऽत्रासन्नभव्यानां गुणस्थानास्त्रयोदश । भवन्त्येव न वान्येषां दूरभव्यात्मनां क्वचित् ॥ ६४ ॥ इत्याख्यायादिमं तत्त्वं वोरश्वागमभाषया । पुनः प्रोक्तुं समारंभे सतामध्यात्मभाषया ॥ ६५ ॥ बहिरात्मान्तरात्मा तु परमात्मातिनिर्मलः । इति त्रिधाङ्गिनो दक्षैः कथ्यन्ते गुणदोषतः ॥ ६६ ॥ विचारविको योऽत्र तत्वातत्त्वे गुणागुणे । सद्गुरौ कुगुरौ धर्मे पापे मार्गे शुभाशुभे ॥ ६७ ॥ जिनसूत्रे कुशास्त्रे च देवादेवे विचारणे । हेयादेये परीक्षादौ बहिरात्मा स उच्यते ॥ ६८ ॥
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अभव्यके भेदसे दो प्रकारकी है, सम्यक्त्वमार्गणा छह प्रकार की है, संज्ञामार्गणाकी अपेक्षा जीव संज्ञी और असंज्ञीके भेदसे दो प्रकारकी है, तथा आहारमार्गणा आहारक-अनाहारकके भेद से दो प्रकारकी है। इस प्रकार तीर्थ - नायक वीरनाथने चौदह मार्गणाओंका उपदेश दिया ||५४-५६।। मार्गणाओंके जानकार विद्वानोंको अपने ज्ञानकी वृद्धिके लिए तथा सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिके लिए चारों गतियो में रहनेवाले संसारी जीवोंका इन मार्गणाओंके द्वारा शीघ्र यत्नसे मार्गण (अन्वेषण) करना चाहिए || ५७ ॥
पुनः जीवोंके क्रमशः विकासको प्राप्त होनेवाले चौदह गुणस्थानोंका उपदेश दिया । उनके नाम इस प्रकार हैं - मिध्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणसंयत, नवम अनिवृत्तिकरणसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, उपशान्तकषायसंयत, क्षीणकषायसंयत, सयोगिजिन और अयोगिजिन । इन चौदहों गुणस्थानोंका भगवान्ने विस्तार से वर्णन किया ।।५८-६०।। जो भव्य जीव इस संसार में निर्वाण (मोक्ष) को गये हैं, जा रहे हैं और भविष्य में जायेंगे, वे इन गुणस्थानोंपर आरोहण करके ही गये, जा रहे और जायेंगे। यह नियम क्वचित् कदाचित् भी अन्यथा नहीं हो सकता है ||६१ || अभव्यजीवके सदा केवल पहला ही गुणस्थान होता है, भले ही वह यहाँपर ग्यारह अंगोंका वेत्ता हो और दीर्घकालका दीक्षित हो । उसके पहले के सिवाय अन्य गुणस्थान नहीं हो सकता ||६२ || जैसे काला साँप शक्कर मिश्रित दूधको पीता हुआ भी अपने विषको नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार आगमरूप अमृतका पान करके भी अभव्यजीव मिथ्यात्वरूप विषको नहीं छोड़ता है || ६३ || इसलिए निकट भव्यजीवोंके ऊपर के तेरह गुणस्थान होते हैं, अभव्यों के और दूर भव्यजीवोंके कभी भी ये गुणस्थान नहीं होते हैं || ६४ ||
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इस प्रकार वीर जिनेन्द्रने आगम भाषासे आदिके जीवतत्त्वको कहकर पुनः सज्जनोंको उसका उपदेश अध्यात्म भाषासे देना प्रारम्भ किया || ६५ || ज्ञान- कुशल जनोंने गुण और दोपके कारण प्राणियोंको तीन प्रकारका कहा है- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । इनमें परमात्मा अति निर्मल है, (अन्तरात्मा अल्प निर्मल है और बहिरात्मा अति मलयुक्त है | ) ||६६ || इनमें से जो जीव तत्त्व अतत्त्व में, गुण-अगुणमें, सुगुरु-कुगुरुमें, धर्म-अधर्म में, शुभमार्ग-अशुभ मार्ग में, जिनसूत्र- कुशास्त्र में, देव- अदेव में, और हेय उपादेयके विचार करने में तथा उनकी परीक्षा आदि करनेमें विचार-रहित होता है, वह बहिरात्मा कहा जाता है।