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१५८
श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१५.१४२
एतान्यथ प्रतिबिम्बानि कृत्रिमाकृत्रिमाणि च । हेमरत्नाश्मजातानि यानि सन्ति जगत्त्रये ॥१४॥ तानि सर्वाणि वन्देऽहं भनिरागवशीकृतः । स्तुवेऽर्च येऽनिशं भक्त्या भवत्स्मरणहेतवे ॥१३॥ त्वदीयाः प्रतिमा देव येऽर्चयन्ति स्तुवन्ति च । नमन्ति भक्तिमारेण ते स्युर्योकत्रयाधिपाः ॥१४४॥ साक्षात्वां मूर्तिमन्तं ये नुतिस्तुत्यर्चनादिभिः । सेवन्तेऽहर्निशं तेषां फलसंख्यां न वेदम्यहम् ॥१४५॥ यावन्तः सन्ति लोकेऽस्मिन् शुभाः स्निग्धाः पराणवः । तैर्विनिर्मितः कायो देव दिव्योऽतिसुन्दरः ॥१४६ यतस्तेऽहं निरौपम्य राजते जगतां प्रियम् । कोटीनाधिकतेजोभिरुयोतितदिगन्तरम् ॥१४७॥ प्रदीप्तं साम्यतापमं वक्त्रं ते विक्रियातिगम् । आत्यन्तिकी मनःशुद्धिं वदतीवेश भासते ॥१४८।। भवत्पादाम्बुजाभ्यां याश्रिता भूमिर्जगद्गुरो । सानैव तीर्थतां प्राप्ता वन्द्यासीन्मुनिनाकिभिः ॥१४९॥ क्षेत्राणि तानि पूज्यानि पविनितानि यानि मोः । त्वया जन्मादिकल्याणैथि प्राप्तानि तीर्थताम् ॥१५०॥ कालः स एव धन्योऽत्र यत्र प्रादुरभूञ्च ते । विभो गर्भादिकल्याणं निःक्रान्तिः केवलोदयः ॥१५॥ अनन्तं केवलज्ञानं त्वदीयं विश्वदीपकम् । लोकालोकनभोव्याप्य ज्ञेयाभावास्थितं विभो ॥१५२॥ अतस्त्वं त्रिजगत्स्वामी सर्वज्ञः सर्वतत्त्ववित् । विश्वव्यापी जगन्नाथो देवात्र सम्मतः सताम् ॥१५३॥ केवलं दर्शनं स्वामिन्नन्तातीतं जगन्नुतम् । लोकालोकं विलोक्येश तवास्थाज्ञानवत्तराम् ।।१५४॥
के लिए
नामोंके समूहसे आपकी स्तुति की है, अतः स्तुति करनेवाले मुझे भी अपनी करुणासे आप अपने नामके सदृश कीजिए ॥१४१।।
हे नाथ, तीन लोकसे जितनी भी सुवर्ण, रत्न और पाषाणमयी कृत्रिम-अकृत्रिम जिनप्रतिमाएँ हैं उन सबकी मैं भक्तिरागके वश होकर वन्दना करता हूँ और आपके रस नित्य भक्तिसे पूजन करता हूँ ॥१४२-१४३।। हे देव, जो लोग भक्तिभावसे आपकी इन प्रतिमाओंकी पूजा करते हैं, स्तुति करते हैं और नमस्कार करते हैं, वे तीन लोकके स्वामी होते हैं ॥१४४॥ और जो मूर्तिमान आपकी नमस्कार, स्तवन और पूजनादिसे साक्षात् अहर्निश ( रात-दिन) सेवा करते हैं, उनको प्राप्त होनेवाले फलोंकी संख्या को मैं नहीं जानता हूँ ॥१४५॥ __ हे भगवन् , इस लोकमें जितने भी शुभ और स्निग्ध परमाणु हैं, उनके द्वारा ही आपका यह अतिसुन्दर दिव्य देह रचा गया है ॥१४६।। क्योंकि आपका यह उपमा-रहित और जगत्प्रिय शरीर अति शोभायमान हो रहा है। आपका तेज कोटि सूर्योके तेजसे भी अधिक है और समस्त दिशाओंके अन्तरालको प्रकाशित कर रहा है ॥१४७॥ हे ईश, आपका सर्व विकारोंसे रहित साम्यताको प्राप्त और प्रदीप्त यह मुख आपकी आत्यन्तिक हृदयशुद्धिको कहते हुए के समान प्रतीत हो रहा है ॥१४८॥ हे जगद्-गुरो, आपके चरण-कमलोंसे जो भूमि आश्रित हुई और हो रही है, वह यहाँपर ही तीर्थपनेको प्राप्त हुई है और मुनिजन एवं देवगणसे वन्दनीय हो रही है ॥१४९।। हे नाथ, आपके गर्भ-जन्मादि कल्याणकोंके द्वारा जो क्षेत्र पवित्र हुए हैं, वे सब तीर्थपनेको प्राप्त हुए हैं, अतः पूज्य हैं ॥१५०।। हे प्रभो, वही काल धन्य है, जिस कालमें आप पैदा हुए, गर्भ-कल्याणक हुआ, निष्क्रमण ( दीक्षा ) कल्याणक हुआ और केवलज्ञानका उदय हुआ है ॥१५१।। हे विभो, आपका यह अनन्त केवलज्ञान विश्वका दीपक है , क्योंकि वह लोकाकाश और अलोकाकाशको व्याप्त करके अवस्थित है, उसके जानने योग्य पदार्थका अभाव है, अर्थात् आपके ज्ञानने जानने योग्य सभी पदार्थोंको जान लिया है ॥१५२॥ इसलिए हे देव, आप तीन जगत्के स्वामी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वतत्त्ववेत्ता हैं, विश्वव्यापी हैं, और सन्तजनोंने आपको जगन्नाथ माना है ॥१५३।। हे स्वामिन , आपका अन्त-रहित और जगत्से नमस्कृत यह केवलदर्शन लोकालोकको अवलोकन करके अवस्थित है, अतः हे ईश, वह आपके ज्ञानके समान ही अत्यन्त शोभाको प्राप्त हो रहा है ॥१५४||
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