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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चदशोऽधिकारः श्रीमते केवलज्ञानसाम्राज्यपदशालिने । नमो वृताय मन्योधैर्ध मतीर्थप्रवर्तिने ॥१॥ परितस्तं जिनाधीशं व्याप्य स्वास्थानभूतलम् । सर्व कुसुमवृष्टीः प्रकुर्वन्ति सुवारिदाः ||२|| आयान्ती सा नभोभागाद्गन्धाकृष्टाळिगुञ्जनैः । गायन्तीव जगन्नाथं माति दिव्या तताम्बरा ||३|| सार्थकरूपाधरस्तुङ्गो जगच्छोकापनोदनात् । आसीदशोकवृक्षोऽत्र जिनाभ्यासेऽतिदीधिमान् ॥ ४ ॥ विचित्रैर्मणिपुष्पैर्मरकता दिसुपल्लवैः । चलच्छाखैर्महान् भाति भव्यानाह्वयतीव सः ॥ ५ ॥ विभोः शिरसि दीप्राङ्गं मुक्तालम्बनभूषितम् । नानारत्नब्रजैर्दिव्यैः पिनद्धदण्डमूर्जितम् ॥६॥ श्वेत छत्रत्रयं दीप्त्या जितचन्द्रं विराजते । त्रैलोक्याधिपतित्वं हि सतां सूचयतीव भो: ||७|| क्षीराब्धिवचिसादृश्यैश्चतुःषष्टिप्रकीर्णकैः । यक्षपाण्यार्पितैर्दिव्यैर्वीज्यमानो जगद्गुरुः ॥८॥ त्रिजगद्भव्य मध्यस्थो लक्ष्म्याऽलंकृतविग्रहः । वरोत्तम इवाभाति मुक्तिनार्यः सुरूपवान् ||९|| सार्धद्वादशकोटिमा जिताम्बुदगर्जनाः । देवदुन्दुभयो देवकरैराताडिताः पराः ॥१०॥ तर्जयन्त इवानेककर्मातीन् जगत्सताम् । कुर्वन्ति विविधान् शब्दान् सुजिनोत्सवसूचकान् ॥११॥ दिव्यौदारिकदेहोत्थं दीनं भामण्डलं प्रभोः । कान्तं विराजते रम्यं कोटिसूर्याधिकप्रभम् ||१२|| निराबाधं निरौपम्यं प्रियं विश्वामिचक्षुषाम् । यशसां पुअ एवेव निधिर्वा तेजसां परम् ||१३|| जिनेन्द्र श्री मुखाद्दिव्यध्वनिर्विश्वहितंकरः । निर्याति प्रत्यहं सर्वतत्त्वधर्मादि सूचकः || १४ || केवलज्ञानरूप साम्राज्यपदके भोक्ता, भव्य जीवोंसे वेष्टित, और धर्मतीर्थ के प्रवर्तक श्रीमान् महावीर स्वामी के लिए नमस्कार है || १ || जिस गन्धकुटीमें भगवान् विराजमान थे उस स्थानके सर्व भूभागको व्याप्त कर देवरूपी मेघ पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे || २ || गगनमण्डलसे आती हुई वह दिव्य पुष्पवृष्टि अपनी सुगन्धिसे आकृष्ट हुए भ्रमरोंकी गुंजार से जगत् के नाथ वीर जिनेश्वरके गुणोंको गाती हुई-सी प्रतीत हो रही थी || ३ || जिनदेव के समीप में अति उन्नत दीप्तिमान् अशोकवृक्ष था, जो कि जगत्के जीवोंके शोकको दूर करने से अपने नामको सार्थक कर रहा था ||४|| वह महान अशोकवृक्ष मणिमयी विचित्र पुष्पोंसे, मरकतमणि जैसे वर्णवाले उत्तम पत्तोंसे, तथा हिलती हुई शाखाओंसे भव्य जीवोंको बुलातासा प्रतीत होता था ||५|| प्रभुके शिरपर दीप्त कान्तिवाला, मुक्कामालाओंसे भूषित, दिव्य नाना रत्न-समूहसे जटित दण्डवाला, और अपनी कान्तिसे चन्द्रमा की कान्तिको जीतनेवाला छत्रत्रय सज्जनोंको भगवान् के तीन लोकके स्वामीपनेकी सूचना देते हुएके समान शोभित हो रहा था ||६-७|| क्षीरसागरकी तरंगों के सदृश शुभ्र वर्णवाले, यक्षोंके हस्तों द्वारा चौसठ चामरोंसे वीज्यमान, तीन लोकके भव्य जीवोंके मध्य में स्थित, और लक्ष्मीसे अलंकृत शरीरवाले, उत्तम रूपवाले जगद् गुरु श्री वर्धमान स्वामी मुक्तिरमाके उत्तम वरके समान शोभित हो रहे थे ॥ ८-९ ॥ मेघोंकी गर्जनाको जीतनेवाली, देवोंके हाथोंसे बजायी जाती हुई साढ़े बारह करोड़ उत्तम देवदुन्दुभियाँ अनेक कर्म-शत्रुओं की तर्जना करती हुई और जगत् के सज्जनों को उत्तम जिनोत्सव की सूचना करती हुई नाना प्रकारके शब्दोंको कर रही थीं ।।१०-११।। भगवान्के दिव्य औदारिक शरीर से उत्पन्न हुआ देदीप्यमान कोटि सूर्य से भी अधिक प्रभावाला रम्य भामण्डल शोभित हो रहा था ॥ १२ ॥ वह भामण्डल सर्वबाधाओं से रहित, अनुपम, सर्व प्राणियोंके नेत्रोंको प्रिय, यशोंका पुंज अथवा तेजोंका निधान-सा ही प्रतीत हो रहा था || १३|| वीरजिनेन्द्र के श्रीमुख से निकलनेवाली, विश्वहित-कारिणी, सर्व For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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