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१४.६१] चतुर्दशोऽधिकारः
१३७ दीसाङ्गगरुडारूढः शुक्रन्द्रो निर्ज रैर्वृतः । सामान्यकादिकैः स्त्रीभिस्तत्पूजायै च निर्ययौ ॥४५|| स्वाभियोग्यसुरोत्पन्नमयूरवाहनान्वितः । सामरः सकलत्रश्च शतारेन्द्रोऽपि निर्गतः ॥४६॥ आनतेन्द्रादयः शेषाश्चत्वारः कल्पनायकाः । विमानपुष्पकारूढास्तस्कल्याणाय निर्ययौ ॥४७॥ इति द्वादश कल्पेन्द्राः स्वस्वभूतिविराजिताः । द्विषट्प्रतीन्द्रसंयुक्ताः स्वस्ववाहनमाश्रिताः ॥४८॥ पटहादिमहाध्वानः पूरयन्तो दिशोऽखिलाः । तन्वन्तः सुरचापानि स्वाङ्गभूषांशुभिश्च खे ॥४९।। छादयन्तो नभोभागं वजछत्रादिकोटिभिः । जय-जीवादिशब्दौर्बधिरीकृतदिग्मुखाः ॥५०॥ गोतनर्तनवाद्यादिमहोत्सवशतैः समम् । ज्योतिषां पटलं प्रापुरवतीर्य दिवः शनैः ॥५१॥ चन्द्राः सूर्या ग्रहाः सर्वे नक्षत्रास्तारकामराः । स्वत्ववाहनमारुह्य स्वस्वभूतिविमण्डिताः ॥५२।। असंख्याताः स्वदेवाढ्या धर्मरागरसाङ्किताः । जिनकल्याणसंसिद्धयै जग्मुस्तैः सह भूतलम् ॥५३॥ चमरः प्रथमोऽधेन्द्रो विरोचनो द्वितीयकः । भूतेशो धरणानन्दो वेण्वाख्यो वेणुधार्यथ ॥५४॥ शक्रः पूर्णोऽवशिष्टश्च जलामो जलकान्तिमान् । हरिषेणोऽमरेन्द्रो हरिकान्तोऽग्निशिखी ततः ॥५५॥ अग्निवाहननामामितगत्यमितवाहनौ । इन्द्रो घोषो महाघोषो वेळाअनप्रभञ्जनौ ॥५६॥ अमी विंशतिदेवेन्द्राः प्रतीन्द्राश्च तथाविधाः । भवनामरजातीनामसुरादिदशात्मनाम् ।।५७॥ स्वस्ववाहनमूल्याद्यैः स्वदेवीभिरलंकृताः । धरामुद्भिद्य चाजग्मुस्तत्पूजायै महीतलम् ॥५०॥ किन्नरः प्रथमश्वेन्द्रस्ततः किंपुरुषाभिधः । शक्रः सत्पुरुषाख्योऽथ महापुरुषनामकः ॥५९॥ अतिकायो महाकाय इन्द्रो गोतरतिस्ततः । सुरेन्द्रो रतिकार्तिमणिभद्रः पूर्णभद्रकः ॥६०॥ भीमनामा महाभीमः सुरूपः प्रतिरूपकः । इन्द्रः कालो महाकाल इतीन्द्राः षोडशामृताः ॥६॥
दीप्त शरीरवाले गरुड़पर आरूढ़ और देवोंसे घिरा हुआ शुक्रेन्द्र भी अपने सामानिकादि देवोंसे तथा देवियोंसे युक्त होकर भगवान्की पूजाके लिए निकले ॥४४-४५॥ अपने आभियोग्य देवसे निर्मित मयूर वाहनपर चढ़कर शतारेन्द्र भी अपने देव और देवी-परिवारके साथ निकला ॥४६।। आनतेन्द्र आदि शेष चार कल्पोंके स्वामी इन्द्र भी अपने-अपने देवपरिवारोंके साथ पुष्पक विमानपर आरूढ़ होकर भगवानके ज्ञानकल्याणकके लिए निकले ॥४७|| इस प्रकार बारह कल्पोंके इन्द्र अपने बारहों प्रतीन्द्रोंसे संयुक्त होकर अपनी-अपनी विभूतिके साथ अपने-अपने वाहनोंपर चढ़कर भेरी आदिके महानादोंसे समस्त दिशाओंको परित करते, अपने भूषणोंकी कान्तिपूजसे आकाशमें इन्द्रधनषकी शोभाको विस्तारते, कोटिकोटि ध्वजा और छत्रोंसे नभोभागको आच्छादित करते, जय-जीव आदि शब्द-समूहोंसे दिशाओंको बधिर करते स्वर्गसे धीरे-धीरे उतरकर गीत नृत्य वादित्र आदिके साथ सैकड़ों उत्सवोंको करते हुए ज्योतिषी देवोंके पटलको प्राप्त हुए ॥४८-५१॥ तब ज्योतिष्क पटलके सभी असंख्यात चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण अपनी-अपनी विभूतिसे मण्डित होकर धर्मानुरागके रससे व्याप्त हो, अपनी-अपनी देवियोंसे युक्त हो जिनकल्याणकी सिद्धिके लिए उक्त कल्पवासी देवोंके साथ भूतलकी ओर चले ॥५२-५३।। उसी समय असुरकुमारादि दश जातिके भवनवासी देवोंके १ चमर, २ वैरोचन, ३ भूतेश, ४ धरणानन्द, ५ वेणुदेव, ६ वेणुधारी, ७ पूर्ण, ८ अवशिष्ट, ९ जलप्रभ, १० जलकान्ति, ११ हरिषेण, १२ हरिकान्त, १३ अग्निशिखी, १४ अग्निवाहन, १५ अमितगति, १६ अमितवाहन, १७ घोष, १८ महाघोष, १९ वेलंजन, और २० प्रभंजन ये बीस इन्द्र और बीस ही उनके प्रतीन्द्र अपनी-अपनी विभूति, वाहनास तथा अपनी-अपनी देवियोंसे संयुक्त होकर भूमिको भेदन कर भगवानकी पूजाके लिए इस महीतलपर आये ॥५४-५८।। उसी समय किन्नर आदि आठों जातिके व्यन्तर देवोंके १ किन्नर, २ किम्पुरुष, ३ सत्पुरुष, ४ महापुरुष, ५ अतिकाय, ६.महाकाय, ७ गीतरति, ८ रतिकीर्ति (गीतयश ), ९ मणिभद्र, १० पूर्णभद्र, ११ भीम, १२ महाभीम, १३ सरूप, १४ प्रतिरूप,
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