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१४.२८] चतुर्दशोऽधिकारः
१३५ तुङ्गवंशं महाकाय सुवृत्तोन्नतमस्तकम् । सात्त्विकं बलिनं युक्तं दिव्यैर्य अनलक्षणैः ॥१५॥ तिर्यग्लोकायितस्थूलदीर्घानेकमहाकरम् । वृत्तगात्रं महोत्तुङ्ग कामगं कामरूपिणम् ॥१६॥ सुगन्धिदीर्घनिःश्वासं दीर्घोष्ठं दुन्दुभिस्वनम् । कल्याणप्रकृति रम्यं कर्णचामरशोमितम् ॥१७॥ महाघण्टाद्वयोपेतं ग्रैवेयमालयाङ्कितम् । नक्षत्रदामशोभाढयं हेमकक्षं वरासनम् ॥१८॥ जम्बूद्वीपप्रभं दीप्रं श्वेतिताखिल दिग्मुखम् । मदनिर्झरलिप्ताङ्गं चलन्तमिव पर्वतम् ॥१२॥ विक्रिय िमयं विक्रियदर्या चैरावताह्वयम् । नागदत्ताभियोग्येशो व्यधान्नागेन्द्रमूर्जितम् ॥२०॥ द्वात्रिंशत्सन्मुखान्यस्य मुखं प्रति रदाष्टकम् । दन्तं प्रतिसरी रम्यमेकं पूर्ण जलैः पृथक् ॥२१॥ सरः प्रत्यब्जिनी चैका ह्यब्जिनीसब्जिनी प्रति । द्वात्रिंशत्कमलान्येव प्रत्येकं कमलं प्रति ॥२२॥ द्वात्रिंशद्रम्यपत्राणि पृथक् तेष्वायतेषु वै । द्वात्रिंशदेवनर्तक्यो दिव्यरूपा मनोहराः ॥२३॥ नृत्यन्ति सलयस्मेरमुखाजा ललितभ्रवः । मृदङ्गगीततालाथैविक्रियाङ्ग रसोत्कटाः ॥२४॥ इत्यादिवर्णनोपेतं तं गजेन्द्रमधिष्ठितः । शच्या सहातिपुण्यात्मा सौधर्मेन्द्रो व्यभात्तराम् ॥२५॥ निधिवत्तेजसा भूत्या स्वागभूषणरश्मिभिः । गच्च न् श्रीवर्धमानस्थ कैवल्यार्चादिहेतवे ॥२६॥ प्रतीन्द्रोऽपि महामत्या ह्यारुह्य निजवाहनम् । भक्त्या स्वपरिवारेण शक्रेण सह निर्ययौ ॥२७॥ आजैश्वर्यादृते शक्रसमाः सामान्यकाः गुणैः । निर्ययुर्द्विद्विचत्वारिंशत्सहसप्रमा (८४०००) मुदा ॥२८॥
शब्दोंसे मुखरित, तेजसे सर्व दिशाओंके मुखोंको व्याप्त करनेवाला, सर्वमनोरथोंका पूरक ऐसा नानारत्नमयी बलाहकाकार दिव्य विमान बनाया ॥१३-१४।। उसी समय नागदत्त नामके आभियोग्य देवोंके स्वामीने एक विशाल ऐरावत हाथीको बनाया, जो उन्नतवंशका था, विशाल कायवाला था, जिसका मस्तक गोलाकार और उन्नत था, जो सात्त्विक प्रकृतिका था, बलशाली था, दिव्य व्यंजन और लक्षणों से युक्त था, तिर्यग्लोक जैसे लम्बे, मोटे, विशाल अनेक करों ( शुण्डादण्डों) को धारण करनेवाला था, गोल शरीरवाला, महाउत्तुंग, इच्छानुसार गमन करनेवाला, इच्छानुसार अनेक रूप बनानेवाला था। जिसका सुगन्धित दीर्घ श्वासोच्छ्वास था, दीर्घ ओठ थे, दुन्दुभिके समान शब्द करनेवाला था, रमणीक था, जिसके दोनों कानोंपर चामर शोभित हो रहे थे, जिसके दोनों ओर महाघण्टा लटक रहे थे, जिसके गलेमें सुन्दर माला अंकित थी, नक्षत्रमालाकी शोभासे युक्त था, सुवर्णमयी सिंहासनसे शोभित था, जम्बूद्वीप प्रमाण विस्तृत था, देदीप्यमान था, अपने श्वेत वर्णसे समस्त दिशाओंके मुखोंको श्वेत कर रहा था, मद झरनेसे जिसका सर्व अंग लिप्त था, जो चलते हुए पर्वतके समान ज्ञात होता था, ऐसा विक्रियाऋद्धिमय ऐरावत नामक ओजस्वी नागेन्द्रको उसने अपनी विक्रिया ऋद्धिसे बनाया ॥१५-२०।।
उस ऐरावत गजके बत्तीस मुख थे, एक-एक मुखमें आठ-आठ दन्त थे, एक-एक दन्तके प्रति जलसे पूर्ण एक-एक सरोवर था, एक-एक सरोवरमें एक-एक कमलिनी थी, एक-एक कमलिनीमें बत्तीस बत्तीस कमल खिल रहे थे, प्रत्येक कमलमें बत्तीस रमणीक पत्र थे, उन विस्तृत पत्रोंपर दिव्यरूप धारिणी मनोहर, लयके साथ स्मितमुख और ललित भ्रुकुटिवाली, मृदङ्ग, गीत, ताल आदिके साथ, विक्रियामय अंगोंसे रस-पूरित बत्तीस-बत्तीस देव-नर्तकियाँ नृत्य कर रही थीं ॥२१-२४॥ इत्यादि वर्णनसे युक्त उस गजराजपर इन्द्राणीके साथ बैठा अपने शरीर के भूषणोंकी किरणोंसे और विभूतिसे तेजोंके निधानके समान श्रीवर्धमानस्वामीके केवलज्ञानकी पूजाके हेतु जाता हुआ वह अतिपुण्यात्मा सौधर्मेन्द्र अत्यन्त शोभाको प्राप्त हो रहा था ॥२५-२६।। प्रतीन्द्र भी अपने वाहनपर आरूढ़ होकर अपने परिवारसे संयुक्त हो महाविभूति और महाभक्तिसे सौधर्मेन्द्र के साथ निकला ॥२७॥ जो आज्ञा और ऐश्वर्यके सिवाय शेष सब गुणोंमें इन्द्र के समान हैं, ऐसे चौरासी हजार
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