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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१३.२८
एतद्दानं परं पुंसां स्वर्गमुक्तिनिबन्धनम् । इच्यूचुः सगिरो देवा जयादिघोषणैः समम् ॥२८॥ अहो यथेह लभ्यन्ते पात्रदानेन भूतले । रवानां कोटयोऽनाः शुभ्राः कीर्त्यादयः पराः ॥२९॥ तथामुत्र श्रियोऽनाः स्वर्गभोगधरादिषु । नूनं बह्वयश्च जायन्ते महाभोगादिसंपदः ॥३०॥ तदा राजाङ्गणं सर्व पूरितं रत्नराशिभिः । विलोक्य निपुणाः केचिदित्थमाहुः परस्परम् ॥३१॥ अहो पश्येदमव दानस्य प्रवरं फलम् । येनाद्य पूरितं राजमन्दिरं रत्नवर्षणः ॥३२॥ तच्छुत्वान्ये विदः प्राहुः कियन्मात्रमिदं फलम् । किन्तु स्वर्मुक्तिसौख्याद्या लभ्यन्ते दानतः पराः ॥३३॥ आकर्य तद्वचः केचित्प्रत्यक्षं वीक्ष्य तत्फलम् । पात्रदाने मतिं चक्रुः स्वर्गश्रीभोगदायिनि ॥३४॥ श्रीवर्धमानतीथशो वीतरागहृदा तदा। रागादीन दृरतस्त्यक्त्वा पाणिपात्रेण संस्थितः ॥३५॥ तनु:स्थित्यै तदाहारं गृहीत्वातो ययौ वनम् । पवित्रं तद्गृहं भूपं कृत्वा दानफलेन च ॥३६॥ तत्सुदानेन भूपोऽपि स्वस्य जन्म गृहाश्रमम् । धनं च सफलं मेने महापुण्यकरं परम् ॥३७॥ तस्य दानानुमोदेन बहवो दानिनोऽपरे । दातृपात्रस्तवाद्यैश्च तत्समं पुण्यमार्जयन् ॥३॥ जिनेशोऽपि बहन् देशान् नानाग्रामपुराटवीः । वायुवतिहरन्नित्यं निर्ममत्वः प्रयत्नतः ॥३९॥ एकाकी सिंह वद् रात्रावसद् ध्यानादिसिद्धये । गिरिकन्दरदुर्गश्मशानेषु निर्जनेषु च ॥४०॥ बहून् षडाष्टमादींश्च षण्मासान्तांस्तपोविधीन् । कुर्याद वोऽवमोदर्य कदाचित्पारणाहनि ॥४१॥ सवृत्तिपरिसख्यानं क्वचिद्धले तपोऽद्भुतम् । अलाभायाघहान्यै चतुःपथादिप्रतिज्ञया ॥४२॥
हैं ॥२७।। यह परमदान पुरुषोंको स्वर्ग और मोक्ष का कारण है, इस प्रकार देवोंने जय-जयकारकी घोषणाके साथ सद् वचन कहे ॥२८॥ अहो, जैसे इस भूतलपर पात्रदानसे अनमोल रत्नोंकी कोटियाँ प्राप्त होती हैं और उत्तम निर्मल कीर्ति आदि प्राप्त होती है, उसी प्रकार परलोकमें भी स्वर्ग और भोगभूमि आदिमें निश्चयसे अनेक अनमोल महाभोगादि सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं ।।२९-३०।। उस समय रत्नोंकी राशियोंसे सारे राजांगणको पूरित देखकर कितने ही निपुण पुरुष परस्परमें इस प्रकार कहने लगे ॥३१॥ अहो, दानका उत्कृष्ट फल यहींपर ही देखो कि आज यह राजभवन रत्नोंकी वर्षासे परिपूर्ण हो रहा है ।।३२।। इस बातको सुनकर अन्य ज्ञानीजन बोलेअरे, यह कितना-सा दानका फल है ? दानसे तो स्वर्ग और मोक्षके परम सुखादिक प्राप्त होते हैं ॥३३॥ उनके ये वचन सनकर और दानके प्रत्यक्ष फलको देखकर कितने ही पर
पुरुषोंने स्वर्गलक्ष्मीके भोगोंको देनेवाले पात्रदानमें अपनी बुद्धिको किया। अर्थात् पात्रदान देनेका निश्चय किया ॥३४।। उस समय श्रीवर्धमान तीर्थश रागादिको दूरसे ही छोड़कर वीतराग हृदयसे अवस्थित रहते हुए शरीरकी स्थितिके लिए पाणिपात्र द्वारा आहारको ग्रहण कर और दानके फलसे राजाको और उसके घरको पवित्र करके वनको चले गये ।।३५-३६।। इस उत्तम दानसे राजाने भी अपना जन्म, अपना गृहाश्रम और महापुण्यकारी अपना धन सफल माना ॥३७॥ उसके हानकी अनुमोदनासे अन्य बहुतसे दानियोंने दाता और पात्रके स्तवन, गुण-गान आदिके द्वारा राजाके समान ही पुण्यका उपार्जन किया ॥३८।।
अथानन्तर वीर जिनेश नाना ग्राम, पुर, अटवी और अनेक देशोंमें वायुके समान निर्ममत्व होकर प्रयत्न के साथ ( जीव रक्षा करते ) और नित्य विहार करते हुए विचरने लगे ॥३९।। वे वीर जिन ध्यानादिकी सिद्धिके लिए भयंकर गिरि-गुफा, दुर्ग, श्मशान आदिमें और निर्जन वन-प्रदेशोंमें सिंहके समान एकाकी रात्रिमें निवास करते थे ॥४०॥ वे जिनदेव वेलातेलाको आदि लेकर छह मास तकके उपवासोंको करने लगे। कभी पारणाके दिन अवमोदर्य ( ऊनोदर ) तप करते, कभी अलाभ परीषहको जीतनेके लिए चतुष्पथ आदिकी प्रतिज्ञा करके
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