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१२२ श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१२.१२७निरस्ताखिलवस्त्राय दिगम्बरधराय च । नमस्तुभ्यं महैश्वर्यसाधनोद्यतचेतसे ॥१२७॥ सर्वसङ्गविमुक्ताय युक्ताय गुणसंपदा । महते मुक्तिकान्ताय नमस्तुभ्यं जिनेश्वर ॥१२॥ नमोऽक्षातीतशर्माक्तमानसाय विरागिणे । उपोषिताय ते नाथ शुक्लध्यानामृताशिने ॥१२९।। नमोऽद्य दीक्षितायाय॑ ते चतुर्ज्ञानचक्षुषे । स्वयंबुद्धाय तीर्थेशे सवालब्रह्मचारिणे ॥१३०॥ विमुखायाखिलाक्षादौ सम्मुखाय चिदात्मनि । निश्चिन्ताय नमस्तुभ्यं मुक्तौ चिन्ताविधायिनि ॥१३१॥ नमः कर्मारिसंतानघातिने गुणसिन्धवे । नमस्तुभ्यं महाक्षान्त्यादिसुलक्षणशालिने ॥१३२॥ अनेन स्तवनेनेड्य जगदाशाप्रपूरण । नार्थयामो जगल्लक्ष्मी त्वां वयं किं तु देव नः ।।१३३॥ भवदीयामिमां शक्ति तपोदीक्षाविधायिनीम् । बालत्वे त्वद्गुणैः साधं देहि मुक्त्यै भवे भवे ॥१३४॥ इति स्तुत्वा तमभ्यर्च्य मुहुर्नत्वा सुराधिपाः । उपाय॑ बहुधा पुण्यं नमःपूजास्तवादिभिः ॥१३५॥ कृतकार्याः सुरैः साध सर्व धर्मात्तमानसाः । स्वस्वास्पदं मुदा जग्मुस्तकल्याणकथारताः ॥१३६॥ अथासौ कर्मशत्रुघ्नं ध्यानं योगनिरोधकम् । निश्चलाङ्गो विधायोच्चैस्तस्थौ ह्यश्मोत्थमूर्तिवत् ॥१३७॥ तदैव तेन योगेन चतुर्थज्ञानमूर्जितम् । प्रादुरासीद्विभोर्लेनं केवल ज्ञानसूचकम् ॥ १३८॥ इति विगतविकारो राज्यभोगादिलक्ष्मी नरसुरगतिजातां योऽन्न बाल्ये विरक्त्या । तृणमिव खलु हित्वा भक्षु जग्राह दीक्षां तमसमगुणकीा वीरनाथं स्तुवेऽहम् ॥१३॥
नमस्कार है ॥१२६॥ समस्त प्रकारके वस्त्रोंके त्यागी और दिशारूप अम्बर ( वस्त्र ) के धारक, तथा महान ऐश्वर्य के साधनमें उद्यत चित्तवाले आपके लिए नमस्कार है ॥१२७॥ सर्वसंगसे विमुक्त, गुण सम्पदासे युक्त, मुक्तिके महाकान्त हे जिनेश्वर,आपके लिए नमस्कार है ।।१२८॥ अतीन्द्रिय सुखसे युक्त चित्तवाले, विरागी, उपवासी और शुक्लध्यानामृतभोजी आपके लिए हे नाथ, नमस्कार है ।।१२९।। हे पूज्य, आजके दीक्षित, चार ज्ञानरूप नेत्रके धारक, स्वयंबुद्ध, तीर्थ के स्वामी और उत्तम बालब्रह्मचारी, समस्त इन्द्रियसुखोंसे विमुख, चैतन्य आत्माके सम्मुख, निश्चिन्त और मुक्ति प्राप्तिमें चिन्ता करनेवाले, आपके लिए नमस्कार है ।।१३०-१३१।। कर्म शत्रुओंकी सन्तानका घात करनेवाले, गुणोंके सागर, उत्तमक्षमादि दश लक्षण धर्मके धारण करनेवाले, आपको नमस्कार है ॥१३२।। हे पूज्य, हे जगढ़ाशाप्रपूरक, इस स्तवनके द्वारा हम आपसे किसी सांसारिक लक्ष्मीकी प्रार्थना नहीं करते हैं। किन्तु हे देव, बालपनेमें भी तपोदीक्षाविधायिनी अपनी इस शक्तिको अपने गुणोंके साथ मुक्तिके लिए भव-भवमें हमें दीजिए ॥१३३-२३४||
___ इस प्रकार वे देवोंके स्वामी वीर प्रभुको स्तुति करके, पूजा करके और बार-बार नमस्कार करके नमन, पूजन और स्तवनादिके द्वारा बहुत प्रकारका पुण्य उपार्जन करके कर्तव्य कायको पूर्ण करनेवाले, धर्म में संलग्न चित्तवाले, और भगवान के दीक्षा-कल्याणककी कथामें निरत वे सभी इन्द्र देवोंके साथ अपने-अपने स्थानोंको चले गये ।।१३५-१३६।।
अथानन्तर वे वीर प्रभु निश्चल अंग होकर, कर्मशत्रुओंका विनाशक, योग-निरोधक ध्यानको धारण करके पाषाणमें उत्कीर्ण मूर्तिके समान ध्यानस्थ हो गये ॥१३७॥ उसी समय ही उस ध्यानयोगके द्वारा वीर प्रभुके उत्कृष्ट चतुर्थ मनःपर्यय ज्ञान प्रकट हुआ जो कि निश्चयसे केवलज्ञानकी प्राप्तिका सूचक है ॥१३८।। ।
इस प्रकार विकारोंसे रहित जिस वीर प्रभुने बालकालमें ही विरक्त होकर मनुष्य और देवगतिमें उत्पन्न हुई राज्य और भोग आदिकी लक्ष्मीको निश्चयसे तृणके समान छोड़कर शीघ्र ही दीक्षाको ग्रहण किया उस वीरनाथकी मैं अनुपम गुणोंके कीर्तन द्वारा स्तुति करता हूँ॥१३९।।
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