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१२० श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१२.९९इत्यसौ मार्गशीर्षस्य कृष्णपक्षेऽप्यपरालके । हस्तोत्तरर्खयोर्मध्यभागं चन्द्रे समाश्रिते ॥१९॥ दशम्यां सुमुहूर्तादौ मुक्तिकान्तासखी पराम् । एकाकी ह्याददे जैनी दीक्षा मुक्त्यै सुदुर्लभाम् ॥१०॥ केशान् भगवतो मूर्ध्नि चिरवासात्पवित्रितान् । मत्वा प्रतीक्ष्य देवेशो निधाय पाणिना स्वयम् ॥१०॥ स्फुरद्नपटल्यां हि गुदाभ्यर्च्य पिधाय च । दिव्यांशुकेन नीत्वा सा सुरै रम्यैर्महोत्सवैः ॥१०२॥ क्षीरोदाब्धेः पवित्रस्य निसर्गेण शुचौ जले । न्यक्षिपत् परया भूत्या बहुमानशुभाप्तये ॥१०॥ यद्यहो कालवालौघाः पूजां प्राप्ता जिनाश्रयात् । तर्हि तस्मान्न किं पुंसां जायते स्वेष्टसाधनम् ॥१०४॥ लभन्तेऽत्र यथा यक्षा जिनांहृयब्जाश्रयान्महम् । तथा नीचजनाः पूजां दुर्लमां चाहंदाश्रिताः ॥१०५॥ जातरूपस्तदा ह्येष तप्तकानभावपुः । निसगैः कान्तिदीप्त्यायेस्तेजोराशिरिवाबभौ ॥१०६॥ ततस्तुष्टाः सुराधीशाः स्तोतुमारेभिरे मुदा । इत्युच्चैस्तद्गुणग्रामैः श्रीवीरं परमेष्ठिनम् ॥१०७॥ त्वं देव परमात्मात्र जगतां गुरुरूर्जितः । गुणाकरो जगन्नाथो निर्जितारिः सुनिर्मलः ॥१८॥ ये गुणा गणनातीता अशक्याः स्तोतुमद्भुताः । देव ते श्रीगणेन्द्राद्यैः सर्वेऽसाधारणा भुवि ॥१८९॥ स्तूयन्ते ते कथं ह्यस्मद्विधरल्पधियान्वितैः । मवेति नो मनो दोलायतेऽत्यन्तं भवत्स्तुतौ ॥११॥ तथापि निर्भरा यैका भक्तिरस्ति तवोपरि । सैवेश त्वत्स्तवेऽत्रास्मान्मुखरीकुरुते हठात् ॥११॥ बहिरन्तर्मलापायान्निर्मला गुणराशयः । स्फुरन्ति तेऽद्य योगीश निर्मधेन करा इव ॥११२॥
रहित और सर्व गुणोंका आकर ऐसा सामायिक नामका सारभूत संयम अंगीकार किया ॥९५-९८॥ इस प्रकार मार्गशीर्षमासके कृष्णपक्षकी दशमीके दिन अपराह्नकालमें उत्तरा और हस्त नक्षत्रके मध्यभागमें चन्द्रमाके आश्रित होनेपर उत्तम मुहूर्तमें वीरप्रभुने अकेले ही मुक्तिकान्ताकी परम सखी और अतिदुर्लभ ऐसी जैनी दीक्षाको मुक्ति-प्राप्ति के लिए धारण किया ॥९९-१००।। भगवान् के मस्तकपर चिरकाल तक निवास करनेसे केशोंको अति पवित्र मानकर देवेन्द्रने उन्हें स्वयं उठाकर हर्षसे उनकी पूजा कर और प्रकाशमान रत्नोंकी पिटारीमें रखकर तथा उसे दिव्य वस्त्रसे ढककर देवोंके साथ रमणीक महोत्सव करते हुए उस रत्नपिटारीको पवित्र क्षीरसागरके स्वभावतः पवित्र जलमें परम विभूतिसे बहु सम्मान्य पुण्यकी प्राप्तिके लिए निक्षेपण किया ॥१०१-१०३॥ अहो, यदि जिनेश्वरके आश्रयसे ये काले अचेतन बालोंका समूह पूजाको प्राप्त हुआ, तो सचेतन पुरुषोंको उनसे क्या इष्ट साधन नहीं होगा? अर्थात जिनेश्वरके आश्रयसे मनुष्योंको सभी इष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होंगी ॥१०४|| जिस प्रकार इस लोकमें यक्ष देव जिनदेवमें चरण-कमलोंके आश्रयसे सम्मानको पाते हैं, उसी प्रकार अर्हन्त देवका आश्रय लेनेवाले नीचजन भी दुर्लभ पूजाको प्राप्त करते हैं ॥१०५।।
उस समय सन्तप्त सुवर्ण कान्तिवाले शरीरके धारक यथा जातरूपवाले वीर भगवान् नैसर्गिक कान्ति और दीप्ति आदि के द्वारा तेजोराशिके समान शोभित हुए ॥१०६॥ तव परम सन्तोषको प्राप्त हुए देवेन्द्रोंने हर्षसे उनके गुण-ग्रामों द्वारा श्री वीर परमेष्टीकी इस प्रकार उच्च स्वरसे स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥१०७|| हे देव, इस संसारमें तुम ही परमात्मा हो, तुम ही तीनों जगत्के महान गुरु हो, तुम ही गुणोंके सागर हो, जगन्नाथ हो, शत्रुओंके जीतनेवाले हो और अति निर्मल हो ॥१०८।। हे देव, आपके जो गणनातीत ( असंख्यात) गुण हैं, वे अद्भत हैं, संसारमें वे असाधारण हैं, उनकी स्तुति करने के लिए श्री गणधर देवादि भी अशक्य हैं, तो फिर अल्प बुद्धिसे युक्त हमारे-जैसे लोगोंके द्वारा उनकी कैसे स्तुति की जा सकती है, यह समझकर हमारा मन आपकी स्तुति करने में झूलाके समान झोंके खा रहा है ॥१०९-११०।। तथापि हे ईश, आपके ऊपर हमारी जो एक निश्चल भक्ति है, वही हमें आपकी स्तुति करनेके लिए हठात् वाचालित कर रही है ॥१११।। हे योगीश, बाह्य और आन्तरिक मरणके विनाशसे आपकी यह निर्मल गुणोंकी
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