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१२.७०]
द्वादशोऽधिकारः स्रग्वी स्वर्गोपनीतैः संमण्डितोंऽशुकभूषणैः । वीरः पुराद्वनं गन्छन् पौरैरित्यभिनन्दितः ।।५८।। व्रज सिद्धय जयारातीन् कुरु कृत्यं जगद्गुरो । शिवपन्थास्तवाद्यास्तु कल्याणकोटिभाग्भव ॥ ५९॥ केचिद्विचक्षणा वीक्ष्य गच्छतं तं तपोवनम् । अभुक्तभोगसाम्राज्यं जगुरिस्थं परस्परम् ॥६॥ अहो पश्य महच्चित्रमिदमेष यतो जिनेट । कौमारत्वेऽपि कामारिं हत्वा याति तपोवनम् ॥६॥ तदाकर्ण्य परे प्राहरयमेव क्षमोऽत्र भोः । मोहाक्षमदनारातीन् हन्तं नान्यश्च जातुचित् ॥६॥ ततः समधियः केचिदित्यचर्मो भवेदिदम् । सर्व वैराग्यमाहात्म्यं बाह्यान्तः शत्रनाशकृत् ॥६३॥ ईदशाः स्वर्गजा भोगाः संपदस्त्रिजगद्भवाः । येन त्यक्तं च शक्यन्ते हन्तं पञ्चाक्षतस्कराः ॥६॥ यतस्त्यजेद् विरक्तोऽत्र तृणवच्चक्रिसंपदः । रागी दारिद्रयदग्धोऽपि कुटीरं नोज्झितं क्षमः ॥६५॥
न्ये वदन्त्येवमहो सत्यं वचोऽत्र वः। वैराग्येण विना यस्मात्कुतोऽस्य निःस्पृहं मनः ॥६६॥ इत्यादिवचनालापैः केचित्तत्स्तवनं व्यधुः । केचित्पौराः प्रणेमुस्तं पश्यन्त्यन्येऽतिकौतुकात् ॥६॥ इत्थं स विविधालापैः इलाध्यमानः पदे पदे । जनैर्जगत्त्रयीनाथः पुरोपान्तमुपागमत् ॥६॥ अथातो निर्गते सूनौ जिनाम्बान्तःशुचा हता । वल्लीव दवदग्धाङ्गा तुग्वियोगाग्निना पिता ॥६९।। रोदनं चेति कुर्वाणा बन्धुभिः सममार्तधीः । विलोपैर्बहुमिर्दुःखात्स पुत्रमनु निर्ययुः ॥७०॥
तच्छ्रुत
भीतरी
जो सर्व ओर से देवेन्द्रोंके द्वारा समावृत है, जो स्वर्गसे लाये गये मालाओं और वस्त्राभूषणोंसे मण्डित हैं और इस प्रकार जिनका माहात्म्य सर्व ओर प्रकट हो रहा है, ऐसे वे वीर भगवान जब नगरसे वनको जा रहे थे, तब पुरवासियोंने यह कहते हुए उनका अभिनन्दन किया-हे जगद्-गुरो, आप शत्रुओंको जीतें, सिद्धि प्राप्तिके लिए कर्तव्य कार्यको करें, आपका मार्ग सुखमय हो, आप कोटि-कोटि कल्याणोंको प्राप्त हो ॥५७-५९|| साम्राज्य सुख और स्त्रीभोगको भोगे बिना ही तपोवनको जाते हुए वीर भगवानको देखकर कितने ही विचक्षण पुरुष परस्परमें इस प्रकारसे वार्तालाप करने लगे-अहो, देखो, यह महान् आश्चर्यकी बात है कि यह जिनराज कुमारावस्थामें ही कामरूपी शत्रुको मारकर तपोवनको जा रहे हैं ॥६०-६१।। उनकी इस बातको सुनकर दूसरे लोग कहने लगे-अरे, इस लोकमें मोह, इन्द्रिय-भोग और कामशत्रुको मारनेके लिए यह वीर प्रभु ही समर्थ है, और दूसरा कदाचित् भी समर्थ नहीं है ॥६२।। उनकी यह बात सुनकर कितने ही सूक्ष्म बुद्धिशाली पुरुष बोले-अरे, बाहरी और
। शत्रको नाश करनेवाले वैराग्यका यह सब माहात्म्य है ॥६३॥ जिससे कि ऐसे स्वर्गीय भोग, और त्रिजगत्की सर्व सम्पदाको भी छोड़नेके लिए और पंचेन्द्रियरूपी चोरोंको मारनेके लिए ये समर्थ हो रहे हैं ॥६४॥ यह परम वैराग्यका ही प्रभाव है कि ये चक्रवर्ती की सम्पदाको विरक्त होकर तृणके समान छोड़ रहे हैं। अन्यथा रागी और दरिद्रतासे युक्त पुरुष तो अपनी जीर्ण पर्णकुटीरको भी छोड़नेके लिए समर्थ नहीं होता है ॥६५।। उनकी यह बात सुनकर दूसरे लोग कहने लगे-अहो, तुम्हारा कहना सत्य है, क्योंकि वैराग्यके बिना इनका ऐसा निःस्पृह मन कैसे हो सकता है।।६६।। इत्यादि वचनालापोंके द्वारा कितने ही लोग उनका स्तबन कर रहे थे, कितने ही पुरवासी लोग उन्हें प्रणाम कर रहे थे और कितने ही लोग अति कौतुकसे उन्हें देख रहे थे ॥६७। इस प्रकार लोगोंके द्वारा पद-पदपर अनेक प्रकारके वचनालापोंसे प्रशंसा किये जानेवाले वे तीन जगत्के नाथ नगरके अन्त में पहुँचे ।।६।।
__इस प्रकार अपने पुत्र वीर कुमारके घरसे चले जाने पर जिन-माता त्रिशला आन्तरिक शोकसे आहत होकर दावाग्निसे जली हुई वेलिके समान होती हुई और पुत्र-वियोगकी अग्निसे पीड़ित सिद्धार्थ पिता भी आर्तचित्त होकर बन्धुजनोंके साथ दुःखसे रोते और भारी
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