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१०-१०७]
दशमोऽधिकारः
तस्मान्मन्ये तदेवाहं तपो दुष्करमूर्जितम् । दमनं विषयारीणां युवभिः क्रियते च यत् ॥ १०३ ॥ विचिन्त्येति महाप्राज्ञः सन्मतिः प्रोज्ज्वले हृदि । निःस्पृहो राज्यभोगादौ सस्पृहः शिवसाधने ॥ १०४ ॥ कारागारसमं गेहं ज्ञात्वा राज्यश्रिया समम् । त्यक्तुं तपोवनं गन्तुं प्रोद्यमं परमं व्यधात् ॥ १०५ ॥ इति शुभपरिणामात्काललब्ध्या च तीर्थेट् सकलसुखनिधानं प्राप संवेगसारम् । मदनजनितसौख्यं योऽप्यभुक्त्वा कुमार इह दिशतु स वीरो मे स्तुतः स्वां विभूतिम् ॥१०६ ॥ वीरो वीरगणैः स्तुतश्च महितो वीरा हि वोरं श्रि
वीरेणात्र विधोयतेऽखिलसुखं वीराय मूर्ध्ना नमः । वीरावीरपदं भवेत् त्रिजगतां वीरस्य वीरा गुणा
वीरे मां दधतं मनोऽरिविजये श्रीवीर वीरं कुरु ॥१०७ ||
इति भट्टारक- श्री सकल कीर्तिविरचिते श्रीवीर वर्धमानचरिते भगवत्कुमारकालवैराग्योत्पत्तिवर्णनो नाम दशमोऽधिकारः ||१०||
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मन्दताको प्राप्त हो जाते हैं || १०२ || इसलिए मैं उसे ही परम दुष्कर तप मानता हूँ जो कि युवावस्थावाले पुरुषोंके द्वारा विषयरूप शत्रुओंका दमन किया जाता है || १०३ || इस प्रकार विचार करके महाप्रज्ञाशाली सन्मति प्रभु अपने उज्ज्वल हृदयमें राज्यभोग निःस्पृह (इच्छा रहित) हुए और शिव-साधन करनेके लिए सस्पृह (इच्छावाले) हुए ||१०४ || उन्होंने घरको कारागार के समान जानकर राज्यलक्ष्मी के साथ उसे छोड़ने और तपोवन जानेके लिए परम उद्यम किया || १०५॥
इस प्रकार शुभ परिणामोंसे और काललब्धिसे तीर्थंकर प्रभु काम-जनित सुखको नहीं भोग करके ही समस्त सुखोंके निधानभूत उत्कृष्ट संवेग को प्राप्त हुए। इस प्रकार के वे वीर कुमार मेरे द्वारा स्तुतिको प्राप्त होकर मुझे अपनी विभूति देवें ||१०६ ||
वीर प्रभु वीरजनोंके द्वारा संस्तुत और पूजित हैं, वीर पुरुष वीरनाथ के आश्रयको प्राप्त होते हैं, वीरके द्वारा ही इस संसारमें समस्त सुख दिये जाते हैं, ऐसे वीर प्रभुके लिए मस्तक से नमस्कार है । वीरसे जगत् के जीवों को वीरपद प्राप्त होता है, वीरके गुण भी वीर हैं, वीरमें अपने मनको धारण करनेवाले मुझे हे श्री वीर भगवन्, शत्रुको जीतने के लिए वीर करो ||१०७||
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इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीर्ति-विरचित श्री वीरवर्धमान चरित्र में भगवान् के कुमारकाल में वैराग्यकी उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला दसवाँ अधिकार समाप्त हुआ ||१०||