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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०.५६ ] दशमोऽधिकारः ९७ कचित्सुरकुमाराद्यैः समं कुर्वन्मुदोर्जिताम् । जलकेलिं तथान्येयुर्वनक्रीडां निजेच्छया ॥४२॥ इत्याद्यैर्वहुभिः क्रीडाविनोदैः स निरन्तरम् । अन्वभूत्परमं शर्म योग्यं धर्मवतोऽपि सन् ॥४३॥ सौधर्मेन्द्रोऽकरोत्तस्य महत्सौख्यं स्वशर्मणे । विचित्रैर्नर्तनैः रम्यैीतगानमनोहरैः ॥४४॥ कारितैर्निजदेवीभिः स्वर्गजैर्दिव्यवस्तुभिः । काव्यवाद्यादिगोष्टीमिधर्मगोष्ठीभिरन्वहम् ॥४५॥ इत्थं सोऽद्भुतपुण्येन भुञ्जानः सुखमुल्वणम् । क्रमालेभे जगच्छर्मकारणं यौवनं परम् ॥४६।। तदास्य मुकुटेनालंकृते मन्दारमालया। शिरोऽलिनिभवालं च धमोद्रिकृटवदबभी ॥४७॥ ललाटं रुरुचे तस्य कपोलोस्थसुकान्तिभिः । निधानमिव भाग्यानां वाष्टमीचन्द्रवत्तराम् ॥४८॥ किं वय॑तेऽस्य नेत्राब्जे चारुभ्रविभ्रमाङ्किते । यदुन्मेषादिमात्रेण प्रतृप्यन्ते जगजनाः ॥४९॥ मणिकुण्डलतेजोभिर्विभोः कर्णौ रराजतुः । गीतानां पारगौ ज्योतिश्चक्रेण वेष्टिताविव ॥५०॥ तन्मुखेन्दोः परा शोभा वयेते किं पृथक्कराम् । निस्सरिष्यति यद्यस्माद ध्वनिर्दिव्यो जगद्वितः ॥५१॥ नासिकाधरदन्तानां निसर्गरमणीयता । कण्ठादीनां च यास्यासीकस्तां प्रोक्तं क्षमो बुधः ॥५२॥ पृथु वक्षःस्थलं तस्य मणिहारेण मषितम् । विदधे महती शोभा वीरचिच्छीगृहोपमाम् ॥५३॥ मुद्रिकाङ्गदकेयूरकङ्कणाद्यैरलंकृतौ । बाहू सोऽधाजनाभीष्टप्रदौ कल्पांह्निपाविव ॥५४॥ तदाश्रिता नखा दीपा मयूखाभिविभान्त्यहो । क्षमादीन दशधर्माङ्गान् लोके वक्तुमिवोद्यताः ॥५५॥ स्वाङ्गमध्ये बभारासौ सावर्ती नाभिमद्धताम् । सरसीमिव वाग्देवीलक्ष्म्योः क्रीडादिहेतवे ॥५६॥ ۔۔ ۔ ہے وی کر دیتی دی جی کیو د واده نفس از सुखकारक दिव्य वस्त्र, आभूषण और मालाओंको देखते, कभी देवकुमारोंके साथ आनन्दसे जलक्रीड़ा करते और कभी अपनी इच्छासे वनक्रीडाको जाते थे ॥४१-४२॥ इत्यादि प्रकारके अनेक क्रीड़ा-विनोदोंके साथ वीर कुमार धर्मीजनोंके योग्य परम सुखका निरन्तर अनुभव करने लगे ॥४३।। सौधर्मेन्द्र भी अपने सुखके लिए नाना प्रकारके रमणीक नृत्य और मनोहर गीत-गान अपनी देवियोंके द्वारा कराता, स्वर्गमें उत्पन्न हुई दिव्य वस्तुओंके द्वारा भेंट समर्पण करता, और निरन्तर काव्य-वाद्यगोष्ठी और धर्मगोष्ठीके द्वारा उन वीर प्रभुको महान सौख्य पहुँचाता था ॥४४-४५।। इस प्रकार वीरकुमार अद्भुत पुण्यसे उत्कृष्ट सुखको भोगते हुए क्रमसे सांसारिक सुखकी कारणभूत परम यौवनावस्थाको प्राप्त हुए ।।४।। युवावस्थाके प्राप्त होनेपर मुकुट और मन्दारमालासे अलंकृत वीर प्रभुका भ्रमरोंके समान काले बालोंसे युक्त सिर धर्मरूप पर्वतपर स्थित कूटके समान शोभायमान होता था ॥४७॥ कपोलोंसे उत्पन्न हुई कान्तिके द्वारा उनका अष्टमीके चन्द्रतुल्य ललाट भाग्योंके निधानके समान शोभित होता था ॥४८॥ सुन्दर भ्र-विभ्रमसे यक्त उनके नेत्रकमलोंका वर्णन किया जाये, जिनके निमेष-उन्मेषमात्रसे जगत्-जन अत्यन्त सन्तुष्ट होते थे ॥४९॥ मणिमयी कुण्डलोंकी कान्तिसे प्रभुके सुन्दर गीतोंको सुननेवाले दोनों कान इस प्रकार शोभित होते थे मानो वे ज्योतिषचक्र से ही वेष्टित हों ॥५०।। उनके मुखचन्द्रकी परम शोभाका क्या पृथक् वर्णन किया जा सकता है, जिससे कि कैवल्य प्राप्त होनेपर जगत्-हितकारी दिव्यध्वनि निकलेगी ।।२१।। उनके नाक, अधर, ओष्ठ, और दाँतोंकी, तथा कण्ठ आदिकी जो स्वाभाविक रमणीयता थी, उसे कहने के लिए कौन बुद्धिमान् समर्थ है ॥५२।। मणियोंसे निर्मित हारसे भूपित उनका विशाल वक्षःस्थल वीरलक्ष्मीके घरके समान भारी शोभाको धारण करता था ॥५३॥ वे मुद्रिका, अंगद, केयूर, कंकण आदि आभूषणोंसे अलंकृत दो भुजाओंको अभीष्ट फल देनेवाले कल्पवृक्षोंके समान धारण करते थे ॥५४॥ उनके दोनों हाथोंकी अँगुलियोंके किरणोंसे देदीप्यमान दशों नख ऐसे शोभायमान होते थे, मानो लोकमें क्षमादि धर्मके दश अंगोंको कहने के लिए उद्यत हों ।।५५।। वे अपने शरीरके मध्य में आवर्त युक्त गम्भीर सुन्दर नाभिको धारण किये हुए थे, जो ऐसी ज्ञात होती थी, मानो सरस्वती और लक्ष्मी की क्रीडादि For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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