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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशमोऽधिकारः नमः श्रीवर्धमानाय हताभ्यन्तरशत्रवे । त्रिजगद्धितक मूर्ध्नानन्तगुणसिन्धवे ॥ १ ॥ अथ काश्चिच्च धायस्तं भूषयन्ति शिशुत्तमम् । वस्त्राभरणमाल्याद्यैर्नाकोत्पन्नैर्विलेपनैः ॥ २ ॥ स्नापयन्यदिव्यैः सलिलैर्देवयोषितः । रमयन्ति मुदा चान्या नानाक्रीडन जल्पनैः ॥ ३ ॥ एहि ह्येहि जगत्स्वामिन् प्रसार्थ स्वकराम्बुजान् । मुहुरित्युक्तवत्थोऽन्याः प्रीत्यैनं क्रीडयन्त्यहो ॥४॥ तदासौ स्मितमातन्वन् प्रसर्पन्मणिभूतले । पित्रोर्मुदं ततानोच्चैर्मनोज्ञैर्बालचेष्टितैः ॥५॥ जगद्वन्ध्वादिनेत्राणां चन्द्रस्येवोत्सवप्रदम् । कलोज्ज्वलं तदास्यासीच्छैशवं विश्ववन्दितम् ॥ ६ ॥ मुग्धस्मितं यदस्याभून्मुखेन्दौ चन्द्रिकामलम् । तेन पित्रोर्मनस्तोषसमुद्रो ववृधेतराम् ॥ ७॥ क्रमाच्छ्रीमन्मुखाब्जेऽस्याभवन्मन्मनभारती । वाग्देवतैव तद्वाल्यमनुकतु तथाश्रिता ॥८॥ प्रस्त्पादविन्यासैः शनैर्मणिधरातले । स रेजे संचरन् बालभानुवभूषणांशुभिः ॥ ९ ॥ हस्त्यश्वमर्कटादीनां रूपमादाय सुन्दरम् । मुदा तं क्रीडयामासुर्नानाक्रीडापराः सुराः ॥१०॥ इत्यन्यैः शिशुचेष्टौधैर्बन्धूनां जनयन्मुदम् । क्रमात्सुधान्नपानाद्यैः स कौमारत्वमाप्तवान् ॥ ११ ॥ अभ्यन्तर कर्मशत्रुके नाशक, त्रिजगत्‌के प्राणियोंके हितकर्ता और अनन्त गुणोंके सागर श्रीवर्धमानस्वामीके लिए नमस्कार है ॥ १ ॥ अथानन्तर कितनी ही देवियाँ उस श्रेष्ठ बालकको स्वर्गलोक में उत्पन्न हुए वस्त्र, आभूषण, माला और चन्दन- विलेपनसे भूषित करती थीं, कितनी ही देवियाँ दिव्य जलसे स्नान करातीं और कितनी ही देवियाँ हर्षपूर्वक नाना प्रकार के खेलोंसे और मधुर वचनों से उन्हें रमाती थीं ||२-३॥ कितनी ही देवियाँ अपने कर-कमलोंको पसारकर कहतीं - 'हे जगत्स्वामिन्, इधर आइए, इधर आइए,' इस प्रकार प्रीतिसे कहकर उन्हें अपनी ओर बुलाती और खिलाती थीं ||४|| उस समय वे बाल वीर जिन मन्द मन्द मुसकराते और मणिमयी भूतलपर इधर-उधर घूमते हुए अपनी सुन्दर बालचेष्टाओंके द्वारा माता-पिताको आनन्दित करते थे ||५|| उस समय भगवान् के शैशवकालकी उज्ज्वल कलाएँ समस्त बन्धुजनादिकों के नेत्रोंको चन्द्रमाके समान उत्सव करनेवाली और विश्ववन्दित थीं ||६|| प्रभुके मुख चन्द्रपर मुग्ध - स्मित ( मन्द मुसकान ) रूप निर्मल चन्द्रिका थी, उससे माता-पिता के मनका सन्तोषरूप सागर उमड़ने लगता था || ७|| क्रमसे बढ़ते हुए श्रीमान् महावीर प्रभुके मुखरूपी कमल में मन्मन करती हुई सरस्वती प्रकट हुई, सो ऐसा मालूम पड़ता था मानो वचन देवता ही उनके बालपनका अनुकरण करनेके लिए उस प्रकार से आश्रयको प्राप्त हुई है || ८|| मणिमयी धरातल पर धीरे-धीरे डगमगाते चरण-विन्यास से विचरते हुए भगवान् ऐसे शोभित होते थे मानो भूषणरूपी किरणोंके साथ बालसूर्य ही घूम रहा हो ||९|| नाना प्रकारकी क्रीड़ाओं में कुशल देवकुमार हाथी, घोड़े, वानर आदिके सुन्दर रूप धारण कर बड़े हर्ष से बालजिनको खिलाते थे || १० | इन उपर्युक्त तथा इनके अतिरिक्त अन्य नाना प्रकारकी बालचेष्टाओं के द्वारा बन्धुओंको प्रमोद उत्पन्न करते और अमृतमयी अन्न-पानादिके सेवनद्वारा क्रमसे बढ़ते हुए भगवान् कुमारावस्थाको प्राप्त हुए ||११|| For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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