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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ ९.१०४
जन्माभिषेकजां सर्वां वार्तां श्रुत्वा सविस्मयौ । प्रमोदस्य परां कोटिं प्रापतुस्तौ महोदयौ ॥१०४॥ तौ भूयोऽनुमतिं लब्ध्वा शक्रस्य बन्धुभिः समम् । चक्रतुः स्वसुतस्येति जातकर्म महोत्सवम् ॥ १०५ ॥ तस्यादौ श्रीजिनागारे जिनाचणां महामहम् । नृपाद्याश्चक्रिरे भूत्या सर्वाभ्युदयसाधकम् ॥१०६॥ ततः स्वजनभृत्येभ्यो ददौ दानान्यनेकशः । यथायोग्यं नृपो दीनानाथवन्दिभ्य एव च ॥ १०७ ॥ तदा तोरणविन्यासैः केतुपङ्क्तिभिरूर्जितैः । गीतैर्नृत्यैश्च वादित्रैर्महोत्सवशतैः परैः ॥ १०८ ॥ तत्पुरं स्वःपुरं वाभात्स्वर्धामैव नृपालयम् । प्रमोदनिर्भराः सर्वे बभूवुः स्वजनाः प्रजाः ॥ १०९ ॥ प्रमोदनिर्मरान् विश्वांस्तद्बन्धू स्तन्महोत्सवे । पौरांश्च वीक्ष्य देवेशः स्वं प्रमोदं प्रकाशयन् ॥ ११० ॥ आनन्दनाटकं दिव्यं त्रिवर्गफलसाधनम् । गुरोराराधनायामा देवीभिः कर्तुमुद्ययौ ॥१११॥ नृत्यारम्भेऽस्य सद्गीतगानं ( चैव) मनोहरम् । कतु प्रारेभिरे गन्धर्वास्तद्वाद्यादिभिः समम् ॥ ११२ ॥ सिद्धार्थाद्या नृपाधीशाः सकलत्राश्च सोत्सवाः । तं द्रष्टुं प्रेक्षकास्तत्र पुत्रोत्सङ्गा उपाविशन् ॥१३३॥ आदौ समवतारं स कृत्वा नेत्रसुखावहम् | जन्माभिषेकसंबद्धं प्रायुङ्क्तैनं शुभप्रदम् ||११४ || पुनर्ननाट शक्रोऽन्यन्नाटकं बहुरूपकम् । अधिकृत्य जिनेन्द्रस्यावतारान् प्राग्भवोद्भवान् ॥१५॥ प्रकुर्वन्नूर्जितं नृत्यं सदीप्तिमराङ्कितम् । कल्पशाखीव रेजेऽसौ दिव्याभरणदामभिः || ३१६ ॥ सलयैः क्रमविन्यासैः परितो रङ्गमण्डलम् । परिक्रामन् बभौ शक्रो मिमान इव भूतलम् ॥११७॥
हाथमें भगवान्को समर्पण कर मेरुपर हुई जन्माभिषेककी सुन्दर वार्ताको हर्ष के साथ कहता हुआ कुछ क्षण खड़ा रहा || १०३ || जन्माभिषेककी सारी बात सुनकर आश्चर्य युक्त हो वे दोनों भाग्यशाली माता-पिता अत्यन्त प्रमोदको प्राप्त हुए || १०४ ||
तत्पश्चात् माता-पिताने सौधर्मेन्द्रकी अनुमति लेकर बन्धुजनोंके साथ अपने पुत्रका जन्ममहोत्सव किया || १०५ || सबसे प्रथम उन्होंने और राजाओंने श्रीजिनालय में जाकर सर्व कल्याणकी साधक श्री जिनप्रतिमाओंकी महापूजा भारी विभूति के साथ की ||१०६ || उसके बाद सिद्धार्थराजाने अपने परिजनोंको, नौकरोंको, दीन, अनाथ और बन्दीजनों को यथायोग्य अनेक प्रकारका दान दिया || १०७|| उस समय तोरण द्वारोंसे, वन्दनचारोंसे, ऊँची ध्वजापंक्तियोंसे, गीतोंसे, नृत्योंसे, बाजोंसे और सैकड़ों प्रकार के महोत्सवोंसे वह नगर स्वर्गपुर के समान और राज भवन स्वर्ग-धामके समान शोभाको प्राप्त हो रहा था। सभी स्वजन और प्रजाजन अत्यन्त प्रमुदित हुए || १०८ - २०१९ | उस जन्ममहोत्सव के द्वारा आनन्दसे परिपूर्ण समस्त बन्धुजनोंको और पुरवासियोंको देखकर सौधर्मेन्द्र अपना प्रमोद प्रकाशित कर श्रीजगद्-गुरुकी आराधना करनेको अपनी देवियोंके साथ धर्म अर्थ कामरूप त्रिवर्ग फलका साधक दिव्य आनन्द नाटक करनेके लिए उद्यत हुआ ||११०-१११॥ नृत्यके प्रारम्भ में गन्धर्व देवोंने अपने-अपने वीणादि बाजोंके साथ मनोहर सद्-गीत-गान करना प्रारम्भ किया ||११२|| उस समय श्री महावीर पुत्रको गोद में बैठाये हुए सिद्धार्थ राजा तथा अपनी-अपनी रानियोंके अन्य राजा लोग और उल्लासको प्राप्त अन्य दर्शकगण उस आनन्द नाटकको देखने के लिए यथास्थान बैठ गये ॥११३॥ | उस सौधर्मेन्द्रने सबसे पहले नयनोंको आनन्दित करनेवाला, कल्याणमयी जन्माभिषेक सम्बन्धी दृश्यका अवतार किया। अर्थात् सुमेरुपर किये गये जन्म कल्याणकका दृश्य दिखाया | | ११४ || पुनः जिनेन्द्रदेव के पूर्वभव-सम्बन्धी अवतारोंका अधिकार लेकर इन्द्र बहुरूपक अन्य नाटक किया ||११५ || उल्लासयुक्त, दीप्ति-भार से परिपूर्णउत्कृष्ट नाटकको करता हुआ वह इन्द्र उस समय दिव्य आभूषण और मालाओंके द्वारा कल्पवृक्षके समान शोभाको प्राप्त हो रहा था ॥ ११६ ॥ लय-युक्त पादविक्षेपोंके द्वारा, रंगभूमिकी चारों ओर से प्रदक्षिणा करता हुआ वह इन्द्र ऐसा मालूम होता था मानो इस भूतलको नाप
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