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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८.९२] अष्टमोऽधिकारः त्वं देवि भुवनाम्बासि जननालिजगत्पतेः । महादेवी त्वमेवासि महादेवाङ्गजोद्भवात् ॥७८॥ त्वयाद्य सार्थकं नाम कृतं हे प्रियकारिणि । स्वस्य विश्वप्रियोत्पत्तेस्ततोऽन्या स्त्री न ते समा ॥७९॥ इत्यभिस्तुत्य गूढाङ्गी तां मायानिद्रयान्विताम् । कृत्वा मायामयं बालं निभाय तत्पुरोऽपरम् ॥८॥ स्वकराभ्यां मुदादाय दीप्त्या द्योतितदिङमुखम् । जिनं संस्पश्यं तद्गानमाघ्राय तन्मुख मुहुः ॥८॥ भेजे सा परमां प्रीति महतीं रूपसंपदाम् । निरुन्मेषतया दिव्यरूपोत्थानां विलोकनात् ॥८२॥ ततोऽसौ बालसूर्येण ब्रजन्ती तेन खे बभौ । तदङ्गकान्तितेजोभिः प्राचीव भानुना समम् ॥४३॥ छवं ध्वज सुभृङ्गारं कलशं सुप्रतिष्ठकम् । चामरं दर्पणं तालमित्यादाय स्वपाणिभिः ॥८॥ अष्टौ मङ्गलवस्तूनि जगन्मङ्गलकारिणः । तदा मङ्गलधारिण्यः दिक्कुमार्यः पुरो ययुः ॥८५॥ ततो मुदा सभानीय जगदानन्दवर्तिनम् । इन्द्राणी देवराजस्य व्यधात् करतले जिनम् ॥८६॥ तन्महारूपसौन्दर्यकान्तिलक्षणदर्शनात् । प्रमोदं परमं प्राप्य स जिनं स्तोतुमुद्ययौ ॥८॥ त्वं देव परमानन्दं कर्तुमस्माकमुद्गतः । विश्वान् दर्शयितुं लोके पदार्थान् बालचन्द्रवत् ॥८॥ त्वं ज्ञानिन् जगतां नाथो महतां त्वं महागुरुः । पतिर्जगत्पतीनां त्वं धाता चिद्धर्मतीर्थयोः ॥८९॥ आमनन्ति मुनीन्द्रास्त्वां केवलेनोदयाचलम् । त्रातारं भव्यजीवानां भर्तारं मुक्तिसस्त्रियः ॥१०॥ मिथ्याज्ञानान्धकूपेऽस्मिन् पततो भव्यदेहिनः । धर्महस्तावलम्बेन बहूंस्त्वमुद्धरिष्यसि ॥९१॥ सुधियोऽत्र भवद्वाण्या हत्वा मोहादिदुर्विधीन् । यास्यन्ति परमं स्थानं केऽपि स्वर्गादि चापरम् ॥९२।। करने लगी ॥७६-७७ । हे देवि, त्रिजगत्पतिको जन्म देनेसे तुम सर्व लोककी माता हो, महादेव स्वरूप पुत्रके उत्पन्न करनेसे तुम ही महादेवी हो, संसारके प्रिय पुत्रकी उत्पत्तिसे तुमने अपना 'प्रियकारिणी' यह नाम आज सार्थक कर दिया है, संसारमें तुम्हारे समान और कोई स्त्री नहीं है ॥७८-७९॥ इस प्रकारसे जिनमाताकी स्तुति कर गुप्त देहवाली उस इन्द्राणीने उन्हें मायारूप निद्रासे युक्त करके और उनके समीप दूसरा मायामयी बालक रखकर, अपनी कान्तिसे दशों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले बालजिनेन्द्रको हर्षके साथ दोनों हाथोंसे उठाकर, उनके शरीरका आलिंगन कर और बार-बार मुख चुम्बन कर, दिव्यरूप-जनित अलौकिक रूप सम्पदाको निर्निमेष दृष्टिसे देखती वह परम प्रीतिको प्राप्त हुई ।।८०-८२॥ उस समय वह इन्द्राणी भगवान्के शरीरकी कान्ति और तेजसे युक्त बालसूर्य के साथ आकाशमें जाती हुई इस प्रकारसे शोभाको प्राप्त हुई, जैसे कि उदित होते हुए सूर्यके साथ पूर्व दिशा शोभती है ।।८३।। उस समय जगत्में मंगल करनेवाली दिक्कुमारी देवियाँ छत्र, ध्वजा, भृङ्गार, कलश, सुप्रतिष्ठक (स्वस्तिक), चमर, दर्पण और ताल ( पंखा) इन आठ मंगल वस्तुओंको अपने हाथों में लेकर इन्द्राणीके आगे चली ।।८४-८५।। इस प्रकार संसारमें आनन्द करनेवाले बाल जिनको लाकर इन्द्राणीने हके साथ देवेन्द्र के करतलमें दिया ॥८६॥ उन बाल जिनके रूप, सौन्दर्य, कान्ति और शुभ लक्षणोंके देखनेसे परम प्रमोदको प्राप्त होकर वह जिनदेवकी स्तुति करनेके लिए उद्यत हुआ ॥८७॥ हे देव, तुम हमारे परम आनन्दको करनेके लिए तथा लोकमें सर्व पदार्थोंको दिखाने के लिए बालचन्द्रके समान उदित हुए हो ॥८८।। हे ज्ञानवान, तुम जगत्के नाथ हो, महापुरुषोंके भी महान गुरु हो, जगत्पतियोंके भी पति हो, और धर्मतीर्थके विधाता हो ||८|| हे देव, मुनीन्द्रगण आपको केवलज्ञानरूप सूर्यका उदयाचल, भव्यजीवोंका रक्षक और मुक्ति रमाका भार मानते हैं ॥२०॥ इस मिथ्याज्ञानरूप अन्ध कूपमें पड़े हुए बहुतसे भव्य जीवोंको धर्मरूप हस्तावलम्बन देकरके आप उनका उद्धार करोगे ॥९१॥ इस संसारमें कितने ही बुद्धिमान लोग आपकी दिव्यवाणीसे अपने मोहादि कर्म शत्रुओंका नाशकर मोक्षरूप परम For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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